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________________ विजयोदया टीका ५५३ अब्भंगादीहिं विणा सभावदो चेव जदि सरीरमिमं । सोमेज्ज मोरदेहव्व होज्ज तो णाम से सोभा ॥१०४२।। 'अब्भंगाद्रोहिं विणा' सुगन्धतैलेन म्रक्षणं, उद्वर्तनं, स्नानमालेपनमित्यादिभिविना। 'सभावदो चेव यदि सोभेज्ज इमं शरीरं' स्वभावत एव यदि शोभेत इदं शरीरं । 'मोरदेहुन्व' मयूरदेहवत् । 'होज्ज तो णाम से सोभा' भवेत्तत् स्फुटं देहस्य शोभा ॥१०४२॥ जदि दा विहिंसदि णरो आल पडिदमप्पणो खेलं । कधदा णिपिबेज्ज बुधो महिलामुहजायकुणिमजलं ॥१०४३।। 'जदि दा विहिंसदि णरो आलधु पडिदमप्पणो खेलं' यदि तावन्नरो जुगुप्सते स्प्रष्टुमात्मनोऽपि कासं । 'कधदा णिपिवेज्ज बुधो' कथमिदानी पिवेद्बुधः । 'महिलामुहजणिदकुणिमजलं' युवतिमुखसमुद्भवमशुविजलं ।।१०४३॥ अंतो बहिं च मज्झे व कोइ सारो सरीरगे णत्थि । एरंडगो व देहो णिस्सारो सव्वहिं चेव ॥१०४४॥ 'अंतो बहिं च मज्झे' अन्तर्बर्मिध्ये । 'को वि सारो सरीरगे णत्थि' शरीरेऽङ्गे सारभूतं न किंचिदस्ति । 'एरंडको वा णिस्सारो सहिं चेव' साररहितः सर्वत्र चैव ।।१०४४।। चमरीबालं खग्गिविसाणं गयदंतसप्पमणिगादी । दिट्ठो सारो ण य अत्थि कोइ सारो मणुयस्सदेहम्मि ।।१०४५।। 'चमरीबालं' चमरीणां रोमाणि । 'खग्गिविसाणं' खङ्गिनां मृगाणां विषाणं । गजानां दन्ताः । सर्पाणां रत्नादिकं च दृष्टं सारभूतं । ‘ण य अत्थि कोइ सारो मणुस्सदेहम्मि' नास्ति किञ्चित्सारं मनुष्यदेहे ॥१०४५॥ मांसको मांसभोजी जन खाते हैं वैसे ही कामीजन स्त्रीके दुर्गन्धयुक्त शरीरको तेल फुलेल आदिसे सुवासित करके भोगते हैं ॥१०४०-१०४१॥ गा-जैसे मोरका शरीर स्वभावसे ही सुन्दर होता है वैसे ही यदि सुगन्धयुक्त तेलसे मालिश, उबटन, स्नान, आदिके विना स्वभावसे यह शरीर शोभायुक्त होता तो उसे सुन्दर कहना उचित होता ॥१०४२॥ गा०-यदि मनुष्य बाहरमें पड़े अपने कफको भी छूनेमें ग्लानि करता है तो ज्ञानीपुरुष युवती स्त्रीके मुखसे उत्पन्न हुई दुर्गन्धयुक्त लारको कैसे पीवेगा ॥१०४३॥ __गा०-अन्तरमें, बाहरमें और मध्यमें शरीरमें कुछ भी सार नहीं हैं। ऐरण्डके वृक्षकी तरह शरीर पूर्णरूपसे निःसार है ॥१०४४।। गा०-चमरी गायकी पूँछ के बाल, गैडे वा हिरनके सोंग, हाथीके दाँत, सर्पकी मणि, आदि शब्दसे मयूरके पंख, मृगकी कस्तुरी आदि अवयव तो सारभूत देखे गये हैं अर्थात् इन सबके शरीरोंमें तो कुछ सार है किन्तु मनुष्यके शरीरमें कोई सार नहीं है ॥१०४५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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