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________________ ५४२ भगवती आराधना देहस्य बीज इत्यादिकः । देहस्य बीजं, निष्पत्तिः, क्षेत्रं, आहारः, जन्म, वृद्धिः, अवयवः, निर्गमः, . अशुचिः, व्याधिरध्र वतेत्येतान्पश्येति सूरिब्रवीति क्षपकं ॥९९७।। देहस्य बीजमित्येतद्व्याख्यानायोत्तरगाथा देहस्स सुक्कसोणिय असुई परिणामिकारणं जम्हा । देहो वि होइ असुई अमेज्झघदपूरओ व तदो ॥९९८॥ 'देहस्य बीज' मनुजानां शुक्रशोणितं । अशुचि शुक्रं पुंसः, शोणितं च वनितायाः परिणामि कारणं । 'जम्हा' यस्मात् । परिणामिकारणं शरीरत्वेन तदुभयं परिणमति तस्मात्परिणामिकारणं । 'देहोवि असुइ' शरीरमपि अशुचि तत एव । 'अमेझघरपूरगों व' अमेध्यघृतपूरक इव । यदशुचिपरिणामि कारणं तदशुचि यथाsमेध्यघृतपूरकः अशुचिपरिणामकारणं च शरीरं इति सूत्रार्थः ॥९९८॥ दद्रुवि अमेज्झमिव विहिंसणीयं कुदो पुणो होज्ज । ओज्जिग्घिदुमालधुं परिभोत्तुं चावि तं बीयं ॥९९९।। _ 'बटुं वि य' द्रष्टुमपि । 'विहिंसणीय' जुगुप्सनीयं । 'अमेज्ममिव' अमेध्यमिव । 'कुदो पुणो होज्ज ओज्जिग्घिदु" कुतः पुनर्भवेदाघ्रातु। 'आलधु' आलिङ्गितु। 'परिभोत्तुं चावि' परिभोक्तु चापि । 'तं बीज' तत् शुक्रशोणिताख्यं बीजं । तत्परिणामत्वाच्छरीरमपि तदेव बीजमिदं शरीरमिति मत्वा बीजमिति उक्तं ॥९९९॥ परिणामिकारणशुद्धया तत्परिणामरूपं कार्य शुद्धं भवति शरीरं न तथेति कथयति समिदकदो घद्पुण्णो सुज्झदि सुद्धत्तणेण समिदस्स । असुचिम्मि तम्मि बीए कह देहो सो हवे सुद्धो ॥१०००। गा०-हे क्षपक ! ब्रह्मचर्य व्रतकी सिद्धिके लिए मनुष्योंके शरीरके बीज, उत्पत्ति, क्षेत्र, आहार, जन्म, जन्मके पश्चात् होने वाली वृद्धि, अवयव, कान आदि अंगोंसे निकलने वाला मल, अशुचिता, व्याधि और अध्रुवपनको देखो। ऐसा आचार्य कहते हैं ॥९९७|| गा०-टो०-मनुष्यों के शरीरका बीज रज और वीर्य है जो अशुचि है। वही परिणामिकारण है। पुरुषका वीर्य और स्त्रीका रज ये दोनों शरीर रूपसे परिणमन करते हैं इसलिए ये दोनों परिणामिकारण हैं। इसीसे शरीर भी अशुचि हैं जैसे मलसे बना घेवर अशुचि होता है । जिसका परिणामिकारण अशुचि होता है वह अशुचि होता है। जैसे मलिन वस्तुसे बना घेवर । शरीरका परिणामिकारण रज और वीर्य अशुचि है इसलिए शरीर अशुचि है। यह इस गाथा सूत्रका अभिप्राय है ॥९९८॥ गा-जो विष्टाकी तरह देखनेमें भी ग्लानिके योग्य है वह रज और वीर्य नामक बीज सूंघने, आलिंगन करने और भोगनेके योग्य कैसे हो सकता है ? रज और वीर्य रूप बीज शरीरका परिणामिकारण है अतः शरीरको बीज मानकर 'बीज' शब्दसे शरीरका निर्देश किया है ।।९९९।। आगे कहते हैं कि परिणामिकारणके शुद्ध होनेसे उसका परिणाम रूप कार्य शुद्ध होता हैगा०-जैसे 'समिद' अर्थात् गेहूँके चूर्णसे बना घेवर शुद्ध होता है क्योंकि उसका परिणामि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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