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________________ ५१४ भगवती आराधना यतो वत्तिर्या 'तं' तां 'जाण' जानीहि। 'बंभचरियं ब्रह्मचर्य । 'विमुत्तपरदेहतत्तिस्स' विमक्तपरदेहव्यापारस्य ॥८७२॥ . मनसा वचसा शरीरेण परशरीरगोचरव्यापारातिशयं त्यक्तवतः दशविधाब्रह्मत्यागात् दशविधं ब्रह्मचर्य भवतीति वक्तुकामी ब्रह्मभेदमाचष्टे इत्थिविसयाभिलासो वत्थिविमोक्खो य पणिदरससेवा । - संसत्तदव्वसेवा तदिदियालोयणं चेव ॥८७३।। 'इथिविसयाभिलासो' स्त्रीसम्बन्धिनो ये इन्द्रियाणां विषयास्तासां रूप, तदीयोऽधररसः, तासां वक्त्रप्रभवो गन्धः तासां कलं गीतं, हासो, मधुरं वचः, मदुस्पर्शश्च तत्र अभिलाषः । आत्मस्वरूपपरिज्ञानपरिणतिलक्षणं ब्रह्मचर्य 'वहतीति आत्मा ब्रह्म ततोऽन्यो वामलोचनाशरीरगतो रूपादिपर्यायः सोऽत्र भण्यतेऽब्रह्मशब्देन तत्र चर्या नामाभिलाषपरिणतिः । 'वस्थिविमोखो मेहनविकारानिवारणं । 'पणिदरससेवा' वृष्याहारसेवना। 'संसत्तदव्वसेवा' स्त्रीभिः संसक्तानां सम्बद्धानां शय्यादीनां सेवा तदङ्गस्पर्शवदेव कामिनां तनुप्राप्तद्रव्यस्पर्शोऽपि प्रीति जनयति । 'तदिदियालोयणं चेव' तासां वराङ्गावलोकनं च ॥८७३॥ सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासो । इट्ठविसयसेवा वि य अब्बंभं दसविहं एदं ।।८७४॥ 'सक्कारो' सत्कारः सन्मानना । स च तनुरागप्रवर्तितः । 'संकारों' संस्कारः तासां वस्त्रमाल्यादिभिः । जाते हैं । इस प्रकारसे जो बढता है वह ब्रह्म जीव हैं उस ब्रह्ममें ही चर्या ब्रह्मचर्य है। पराये शरीर सम्बन्धी व्यापारसे अर्थात् स्त्री रमणादिसे विरत मुनि अनन्त पर्यायात्मक जीव स्वरूप का ही अवलोकन करते हुए जो उसीमें रमण करता है वह ब्रह्मचर्य है ॥८७२॥ मन वचन कायसे पर शरीर सम्बन्धी व्यापार विशेषको जिसने त्याग दिया है उसके दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग करनेसे दस प्रकारका ब्रह्मचर्य होता है यह कहनेकी इच्छासे आचार्य अब्रह्मके भेद कहते हैं गा०-टी०-स्त्री सम्बन्धी जो इन्द्रियोंके विषय हैं-उनका रूप, उनके अधरका रस, उनके मुखकी सुगन्ध, उनका मनोहर गायन, हास, मधुर वचन और कोमल स्पर्श, उनकी अभिलाषा करना अब्रह्मका प्रथम भेद है । आत्माके स्वरूपको जानकर उसीमें लीन होना ब्रह्मचर्य है । उसको वहन करनेसे आत्मा ब्रह्म है। उससे अन्य स्त्रीके शरीर सम्बन्धी जो रूप रसादि हैं उन्हें यहाँ अब्रह्म शब्दसे कहा है। उसमें चर्या अर्थात् अभिलाषा रूप परिणति अब्रह्मचर्य है। लिंगमें हुए विकारको दूर न करना दूसरा अब्रह्मका भेद है। इन्द्रियमद कारक आहार करना तीसरा भेद है । स्त्रियोंसे सम्बद्ध शय्या आदिका सेवन चतुर्थ भेद है। स्त्रियोंके शरीरके स्पर्शकी ही तरह उनके शरीरसे सम्बद्ध वस्तुओंका स्पर्श भी कामी जनोंको रागकारक होता है। स्त्रियोंके उत्तम अंगोंका अवलोकन पाँचवाँ भेद है ।।८७३।। गा०-स्त्रियोंका सम्मान करना छठा भेद है। वस्त्र माला आदिसे उन्हें आभूषित करना १. विहरति-अ०। २. कारनिवा-अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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