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________________ ४३४ भगवती आराधना आगंतुघरादीसु वि कडएहिं य चिलिमिलीहिं कायव्यो । खवयस्सोच्छागारो धम्मसवणमंडवादी य ॥६३८।। 'आगंतुघरादीसु वि' आगन्तुकैः स्कन्धावारायातैः साथिकैः कृतेषु गृहादिषु 'संथारो होदित्ति' वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । उक्तानां वसतीनामलाभे 'कडएहि खवगस्सोच्छागारो कादम्वो' कटकैः क्षपकस्य अवस्थितये प्रच्छादनं कार्य। 'धम्मसवणमंडवावी य' धर्मश्रवणणमडपादिकं च । अनेन बहतरासंयमनिमित्तवसतित्यामः, संयमसाधनवसतिविकल्पश्च कथितः । सेज्जा ॥६३८।। ... एवंभूतायां वसती संस्तर इत्थंभूत इत्याचष्टे पुढवीसिलामओ वा फंलयमओ तणमओ य संथारो। होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अह व पुव्वसिरो ॥६३९।। 'पुढवीसंथारो होदि' पृथ्वीसंस्तरो भवति । 'सिलामओ वा' शिलामयो वा। ‘फलकमओ वा' फलकमयो वा । 'तणमओ वा' तृणमयो वा 'समाधिणिमित्तं' समाध्यर्थ । 'उत्तरसिरमथ पुव्वसिरं' पूर्वोत्तमांग उत्तरोत्तमांगो वा संस्तरः कार्यः । प्राची दिगम्युदयिकेषु कार्येषु प्रशस्ता । अथवोत्तरा दिक् स्वयंप्रभाद्युत्तरदिग्गततीर्थकरभक्त्यु द्देशेन ।।६३९॥ . भूमिसंस्तरनिरूपणाय गाथा अघसे समे असुसिरे अहिसुयअविले य अप्पपाणे य । असिणिद्धे घणगुत्ते उज्जोवे भूमिसंथारो ॥६४०॥ 'अघसे' अमृद्वी। 'समे' अनिम्नोन्नता । 'असुसिरे' असुषिरा 'अबिला' । 'अहिसुया' उद्देहिकारहिता। 'अप्पपाणे' निर्जन्तुका । 'असिणि?' अनार्दा । 'घणगुत्ते' घना गुप्ता । 'उज्जोवे' उद्योतवती भूमिः गा०-सेनाके पड़ावके साथ आये हुए व्यापारियोंके द्वारा बनाये गये घरोंमें और आदि शब्दसे इस प्रकारके श्रमणोंके योग्य उद्यानगृह आदिमें क्षपकका सन्थरा करना चाहिए। उक्त प्रकारकी वसतियोंके न मिलनेपर क्षपकके रहनेके लिए बाँसके पत्तोंसे आच्छादित और प्रकाशके लिए झीरी सहित घर बना देना चाहिए। तथा धर्म सुननेके लिए मण्डप आदि भी बना देना चाहिए। इससे बहुत असंयममें निमित्त वसतिका त्याग और संयममें साधन वसतिका निर्माण कहा ।।६३८।। गा०-इस प्रकारकी वसतिमें इस प्रकारका संस्तर होना चाहिए, यह कहते है-समाधिके निमित्त संथरा पृथिवीमय, या शिलामय या फलकमय-लकड़ीका, अथवा तृणोंका होता है। उसका सिर उत्तर की ओर अथवा पूरब की ओर होना चाहिए; क्योंकि लोकमें मांगलिककार्योंमें पूरब दिशा अच्छी मानी जाती है उसीमें सूर्यका उदय होता है। अथवा उत्तर दिशामें विदेह क्षेत्रमें स्थित तीर्थंकरोंके प्रति भक्ति प्रदर्शित करनेके उद्देशसे उत्तरदिशा भी शुभ मानी जाती है ॥६३९|| पृथ्वीमय संस्तरका कथन करते हैंगा०-टो०--जो भूमि कठोर हो, ऊँची नीची न हो, सम हो, छिद्र रहित हो, चींटी आदिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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