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________________ भगवती आराधना यह गाथा १४०६ का पद्यानुवाद है। दूसरी गाथामें चवलाके स्थानमें जो बाला पढ़ते हैं, उन्होंने कहा है 'इन्द्रिय कषायकलभा विषयवने क्रीडनैकरसरसिका। उपशमवने प्रवेश्यास्ततो न दोषं करिष्यन्ति ।' ३१. गा० १५६१ (१५६६) की टोकामें-एषा केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन व्याख्या । उक्तं च नरककटे त्वं प्राप्तो यदुःखं लोहकण्टकैस्तीक्ष्णैः । यन्नारकैस्ततोऽपि च निष्क्रान्तः प्रापितो घोरम् ॥ अन्येषां त्वयं पाठो"""। तदुक्तम् आयसैः कण्टकैः प्राप्तो यदुःखं नरकावनौ । नारकैस्तुद्यमानः सन्पतितो निशितैर्भवान् ।। ३२. प्रायः आशाधर जी अपनी टीकामें 'श्रीविजयो नेच्छति' लिखते हैं कि टीकाकार श्रीविजय अमुक गाथाको मान्य नहीं करते। किन्तु १६३४-१६३५ (१६३९.१६४०) में लिखा है ये दो गाथाएँ श्रीविजय आदि मान्य नहीं करते। अर्थात् इन्हें अन्य टीकाकार भी मान्य नहीं करते । ३३. गाथा १८१२ ( १८१८ ) की टोकामें भी एक श्लोक उद्धत करके उसे प्राकृत टीकाकारके मतसे व्याख्या कहा है। और 'अन्ये' करके जो श्लोक उद्धृत किया है वह अमितगतिकी टीकाका है। उसके बाद 'अपरे' करके तीसरा मत दिया है। ३४. आशाधरजीकी तो सभी टोकाएं ग्रंथान्तरोंके प्रमाणोंसे भरी हुई है। इसमें भी कुछ उद्धरण उल्लेखनीय है । ध्यानके वर्णनमें आर्ष नामसे महापुराणसे बहुत श्लोक उद्धत किये हैं। उसी प्रसंगमें गाथा १८८१ ( १८८७ ) की टीकामें 'उक्तं च ज्ञानार्णवे' लिखकर सात श्लोक उद्धृत किये हैं। तथा गा० २११८ ( २१२४ ) की टीकामें 'तथा चोक्तं पञ्चसंग्रहे' लिखकर प्राकृत पञ्चसंग्रहसे ७ गाथाएँ उद्धृतकी है । प्राकृत पञ्चसंग्रहका यह सर्व प्रथम उल्लेख है जो किसी ग्रन्थमें मिलता है । इससे पूर्व किसी भी ग्रन्थमें नहीं मिलता। ३ प्राकृत टीका-इस प्रकार मूलाराधनादर्पणसे विजयोदयाके अतिरिक्त कई टीकाओंका पता चलता है उनमेंसे एक प्राकृत टीका तो सुनिश्चित थी । और वह किसी दिगम्बराचार्य प्रणीत होनी चाहिये क्योंकि उसमें आचार्यके छत्तीस गुणोंमें अठाईस मूलगुण गिनाये हैं । २८ मूलगुणोंकी परम्परा दिगम्बर परम्परा है। मूलाचारके प्रारम्भमें तथा कुन्दकुन्दके प्रवचनसारके चारित्रा र (गा०८-९) में मूलगुणोंका कथन आता है। आशाधरजीके उल्लेखोंसे यह भी प्रकट होता है कि उसमें और विजयोदयामें क्वचित् मतभेद भी हैं । तथा आशाधर जीने ऐसे स्थानोंमें प्राकृत टीकाको महत्त्व दिया है। उसमें कथाएं भी थीं । यह टीका अवश्य ही महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये । ४. एक अन्य संस्कृत टोका-आशाधर जीके उल्लेखोंसे प्रकट होता है कि विजयोदयाके अतिरिक्त अन्य भी संस्कृत टीका उनके सामने थीं। वे अनेक भी हो सकती हैं जैसा कि विजयोदयामें आये उल्लेखोंसे स्पष्ट है। किन्तु एक तो अवश्य थी । उसका उल्लेख आशाधर जीने संस्कृत टीकाकार रूपसे भी किया है। ५. संस्कृत पद्यानुवाद-गद्यात्मक संस्कृत टीकाओंके सिवाय कुछ पद्यात्मक संस्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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