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________________ विजयोदया टीका ४१३ इय अव्वत्तं जइ सावेंतो दोसे कहेइ सगुरूणं । आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥५९३।। 'जदि इय अन्वत्तं सातो दोसे कहेइ सगुरूणं' यद्येवमव्यक्तं श्रावयन्दोषान्कथयति स्वगुरुभ्यः । 'सत्तमगो आलोयणादोसो' सप्तम आलोचनादोषः । 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे प्रवृत्तो भवति ॥५९३॥ अरहट्टघडीसरिसी अहवा चुदछदोवमा होइ । । भिण्णघडसरिच्छा वा इमा हु सल्लुद्धरणसोधी ॥५९४॥ 'अरहट्टघडीसरिसी' अरगर्तघटीसदृशी यथा घटी पूर्णाप्यपूर्णा । एवमपराधकथनं स्वमुखेन प्रवृत्तमपि अप्रवृत्तमेव गुरुणा अश्रुतत्वात् । 'अहवा चुदच्छुदोवमा होइ' अथवा मंथनचर्मपालिका इव, सा यथा मुक्तापि बध्नाति एवमियं वा मुखकूहरमक्कापि मायाशल्यसहितेति बध्नाति । 'भिन्नघडसरिच्छा वा' भिन्नघटसदशी वा । यथा भिन्नो घटो घटकार्य जलधारणं जलाद्यानयनं वा कर्तुमसमर्थ एवमियमालोचना न निर्जरां संपादयतीति साधर्म्य । सद्दाउलयं ॥५९४॥ आयरिययादमले हु उवगदो वंदिऊण तिविहेण । कोई आलोचेज्ज हु सव्वे दोसे जहावत्ते ॥५९५॥ 'आयरियपादमूले उवगदो' आचार्यपादमूलमुपगतः । 'तिविधेण वंदिगुण' मनोवाक्कायशुद्धया वन्दना कृत्वा । 'कोई' कश्चित् । 'आलोएज्ज हु' कथयेत् । 'सव्वे दोसे जहावत्ते' सर्वान्दोषान्स्थूलान्सूक्ष्मांश्च 'यथावृत्तान्मनोवाक्कायक्रियारूपान् कृतकारितानुमतभेदान् ॥५९५॥ तो दंसणचरणाधारएहिं सुत्तत्थमुव्वहंतेहिं । पवयणकुसलेहिं जहारिहं तवो तेहिं से दिण्णो ॥५९६।। गा०-यदि अपने गुरुओंको स्पष्टरूपसे सुनाई न दे इस प्रकार दोषोंको कहता है तो गुरुके निकट शब्दाकुल नामक सातवें आलोचना दोषका भागी होता है ।।५९३।। गा०-टो०-जैसे रहटमें लगी हुई पानी भरनेकी धटिकाएँ भरकर भी रीति होती जाती हैं उसी प्रकार वह आलोचना करनेवाला मनि है। वह अपने मखसे अपराध प्रकट करनेके लिए प्रवत्त हआ भी अप्रवत्त ही है क्योंकि गरुने उसे नहीं सुना। अथवा वह मन्थन चर्मपालिकाके समान है। जैसे मथानी डोरीसे छूटते हुए भी डोरीसे बँधती जाती है उसी प्रकार उसकी आलोचनावाणी मुखरूपी गर्तसे छूटकर भी मायाशल्यसे सहित होनेसे कसे बद्ध करती है। अथवा फूटे घटके समान है। जैसे फूटा घड़ा घटका कार्य जलधारण अथवा जल आदिका लाना करने में असमर्थ होता है । उसी प्रकार यह आलोचना निर्जरारूप कार्यको नही करती । यह इन दृष्टान्तोंमें और दार्टान्तमें समानता है । यह शब्दाकुलित नामक सातवाँ आलोचना दोष है ।।५९४॥ . गा०-कोई साधु आचार्यके पादमूलमें जाकर, मनवचनकायकी शुद्धिपूर्वक वन्दना करके मनवचनकाय और कृतकारित अनुमोदनाके भेदरूप सब स्थूल और सूक्ष्म दोषोंको कहता है ।।५९५॥ १. यथावृत्तं अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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