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________________ ४१० भगवती आराधना स्पृष्टं । सरक्खे ब' सचित्तधूलिसहिते स्थाने स्थितं सुप्तमासितं वा। 'गन्भिणी' गभिण्या। 'बालवत्थाए' बालबात्सया का ॥ दोयम्मानं गृहीतं इति ॥५८२॥ __ इय जो दोसं लहुगं समालोचेदि गूहदे थूलं । मयमयमायाहिदओ जिणवयणपरंमुहो होदि ॥५८३॥ "इय' एवं । 'जों यः। 'दोसं' अतिचारं । कीदृग्भूतं ? 'लहुगं' स्वल्पं । 'आलोचेदि' कथयति । विचिहदि बिन्तियति । किं ? 'यूल' स्थूलं । 'भयमयमायाहिदओ' भयमयमायासहितचित्तः । महतो दोषान्यादि बाबौम्मि महत्प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्तीति भयं, त्यजन्ति मामिति वा । वृथा निरतिचारचरित्रसर्वसमानभङ्गासह- स्थुलाम झामन्नोति वक्तुं । कश्चित्प्रकृत्यैव मायावी सोऽपि न निगदति । 'जिणवयणपरंमुहो होदि' निनावकापरामुखो भवति ॥५८३॥ सुहुमं व बादरं वा जइ ण कहेज्ज विणएण स गुरूणं । बालायणाए दोसी पंचमओ गुरुसयासे से ॥५८४।। मायाञ्चाल्ल्याल्याणस्य जिनवचनोपदर्शितस्य अकरणात् प्रसिद्धार्था ।।५८४॥ उत्तर माथा-- रसपीदयं व कडयं अहवा कवडुक्कडं जहा कडयं । बवा जदुपूरिदयं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ।।५८५॥ “रसामोदय व कडय' रसोपलेमान्मनाग्बहिः पीतवर्णकटकमिव । 'अथवा कवडुत्तरं' तनुसुवर्णपत्राच्छादितम्मिन का आन्तानिस्सारं। 'अथवा जदुपूरिदगं' अन्तरिच्छद्रं जतुपूर्णकटकमिव । पीतता रसोपलिप्तस्य सया तथाल्पा शुद्धिरिति प्रथमो दृष्टान्तः। गुरुतरपापप्रच्छादनमात्रताप्रकाशनाय द्वितीयो दृष्टान्तः । गुरुतरमैं बैठा, या सोया या खड़ा हमा। या जलादिसे मैंने शरीरको छुआ। या सचित्त धूलिसे सहित स्थानमें मैं खड़ा हुया या बैठा या सोया । अथवा आठ आदि मासका गर्भ धारण करने वाली था जिसे प्रसव किए एक माह भी नहीं बीता था ऐसी स्त्रीसे मैंने आहार ग्रहण किया ॥५८२।। मा इस प्रकार जो अपने सूक्ष्म दोषको कहता है और भय, मद, माया सहित चित्त होनेसे स्थूल दोषको छिपाता है। यदि मैं महान् दोष कहता हूँ तो गुरु मुझे महान् प्रायश्चित्त देने या मुझे ल्याण देंगे यह भय है। मेरा चारित्र निरतिचार है ऐसा गर्व करके स्थूल दोषोंको नहीं कहता। कोई स्वभावसे ही मायावी होनेसे अपने दोषोंको नहीं कहता। ऐसा करने वाला साधु जिनागमसे विमुख होता है ।।५८३।। मा०—यदि साघु विनयपूर्वक गुरुके सामने सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषको नहीं कहता तो यह मालोचनाका पाँचवाँ दोष है क्योंकि उसने जिनागममें कहा मायाशल्यका त्याग नहीं किया ।।५८ ॥ मा-रो-जैसे सोनेके रसके लेपसे लोहेका कड़ा बाहरसे पीला दिखाई देता है। अथवा जैसे सोनेके पतले पात्रसे ढका लोहेका कड़ा अन्दरसे निःसार होता है। अथवा लाखसे भरा कड़ा चौसा होता है उन्हींके समान यह आलोचना शुद्धि है। यहाँ तीन दृष्टान्तोंके द्वारा सूक्ष्म दोषको बालोचनाको निन्दा की गई है। जैसे सोनेके रससे लिप्त कड़ा ऊपरसे पीला होता है उसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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