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________________ विजयोदया टीका ४०१ क्व तहि आलोचनां प्रतीच्छतीत्यत्राह अरहंतसिद्धसागरपउमसरं खीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खघरं ॥५६०॥ 'अरहंतसिद्धसागरपउमसरं' अर्हद्भिः सिद्धश्च साहचर्यात्स्थानं अर्हत्सिद्धशब्दाम्यामिह गृहीतं । अर्हत्सिद्धप्रतिमासाहचर्याद्वा । सागरादिसमीपं स्थानं सामीप्यात्सागरादिशब्देनोच्यते । 'खीरपुफ्फफलभरिदं' क्षीरपुष्पफलभरिततरुसामीप्यात् स्थानं क्षीरपुष्पफलभरितमित्युच्यते । 'उज्जाणभवणतोरणपासाद' उद्यानभवनं, तोरणं, प्रासादः । 'गागजक्खधरं' नागानां यक्षाणां च गृहं ॥५६०॥ अण्णं च एवमादिय सुपसत्थं हवइ जं ठाणं । आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ॥५६१॥ सूरिरेवं स्थित्वा आलोचनां प्रतिगृह्णातीति कथयति पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो हु । आलोयणं पडिच्छदि एको एकस्स विरहम्मि ।।५६२॥ 'पाचीणोदोचिमुहो आयदणमहो व' । प्राङ्मुखः उदड्मुखः । आयतनशब्दः स्थानसामान्यवचनोऽपि जिनप्रतिमास्थानवाच्यत्र गृहीतस्तेन जिनायतनाभिमुखो वा । 'सुहणिसण्णो हु' सुखेनासीनः । 'आलोयणं' आलोचनां । 'पडिच्छवि' शृणोति । 'एक्को' एक एव सूरिरेकस्यैवालोचनां । 'विरहम्मि' एकान्ते । तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति उदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याम्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राङ्मुखो भवति । सूरेस्तु तब कहाँ आलोचना स्वीकार करते हैं । यह कहते हैं गा०-टी०-यहाँ अरहंत और सिद्ध शब्दसे अर्हन्तों और सिद्धोंके साहचर्यसे युक्त अथवा अर्हन्त और सिद्धोंकी प्रतिमाके साहचर्यसे युक्त स्थान लिया गया है । सागर आदि शब्दसे सागर आदिके समीपका स्थान लिया गया है । क्षीर, पुष्प और फलोंसे भरे वृक्षोंके समीप होनेसे स्थानको 'क्षीर पुष्पफल भरित' कहा है । अतः अरहंतका मन्दिर, सिद्धोंका मन्दिर, समुद्रके समीप, कमलोंके सरोवरके समीप, या जहाँ दूध वाले वृक्ष हों, पुष्पफलोंसे भरे वृक्ष हों, उद्यानमें स्थित भवन हो, तोरण, प्रासाद, नागों और यक्षोंके स्थान ।।५६०॥ गा.-अन्य भी जो सुन्दर स्थान हों वहाँ आचार्य क्षपककी निर्विघ्न समाधिके लिए आलोचना स्वीकार करते हैं ।।५६१॥ आगे कहते हैं कि आचार्य इस प्रकार स्थित होकर आलोचना ग्रहण करते हैं गा०-पूरबकी ओर अथवा उत्तरको ओर अथवा जिनमन्दिरकी ओर मुख. करके सुखपूर्वक बैठकर आचार्य एकान्त स्थानमें अकेले ही एक ही क्षपककी आलोचना सुनते हैं। टो०-गाथामें आया आयतन शब्द यद्यपि स्थान सामान्यका वाची है फिर भी यहाँ जिन प्रतिमाके स्थानका वाची ग्रहण किया है। शङ्का-पूरब दिशा अन्धकारको दूर करने में तत्पर सूर्यके उदयकी दिशा है इसलिए अपने उदयका इच्छुक व्यक्ति उसीकी तरह हमारे कार्यका अभ्युदय हो इसलिए पूरबकी ओर मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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