SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका 'तम्हा' तस्मात । 'पध्वज्जादी' प्रव्रज्यादिकं । 'दसणणाणचरणाविचारो जो दर्शनज्ञानचरणातिचारो यः । 'तं सम्वं' सर्व अतिचारं । 'आलोचेहि' कथय । 'पणिहिदप्पा' प्रणिहितचित्तो भूत्वा । 'निरवसेसं' सर्वमित्यनेनैवावगतत्वात् निरवशेषमित्येतत्किमर्थ इति चेत-ज्ञानदर्शनचारित्रविषयाणामतिचाराणां कतिपयानां सामस्त्येऽपि सर्वशब्दस्य प्रवृत्तिरस्तीति निरवशेषग्रहणं प्रत्येकं ज्ञानाद्य तिचारान् ग्रहीतुमुपन्यस्तमिति तन्न दोषः ॥५३२॥ कथं निरवशेषालोचना कृता भवतीत्यारेकायामाह काइयवाइयमाणसियसेवणं दुप्पओगसंभूय । जइ अस्थि अदीचारं तं आलोचेहि णिस्सेसं ॥५३३।। 'काइयवाइयमाणसियसेवणां' कायेन, वाचा, मनसा च प्रवृत्ति प्रतिसेवनां । 'दुप्पओगसंभूया' दुःप्रयोगसंभूतां 'तं' तां । 'आलोचेहि' कथय । 'णिस्सेसं' निःशेषं । 'जइ अत्यि अदीचारों' यद्यस्त्यतिचारः ॥५३३॥ अमुगंमि इदो काले देसे अमुगत्थ अमुगभावेण । जं जह णिसेविदं तं जेण य सह सव्वमालोचे ॥५३४॥ चरणं अतिक्रम्याचरणं । 'इबो' अस्माद्दिनादतिक्रान्ते । 'अमुगम्मि काले' अमुकस्मिन्काले । 'देशे' अमुष्मिन्देशे। 'अमुगभावेण' अनेन भावेन । 'ज' यत । 'जधा णिसेविदं यथा निषेवितं । 'जेण य सह' येन च सह । 'तं सब्वमालोचे' तत्सर्व कथयेद्देशभेदात् कालभेदात् परिणामभेदात्, सहायभेदात् च दोषाणां गुरुलघुभावः । गुरुलघुभावानुसारेण वा गुरु लघु वा प्रायश्चित्तं दीयते । तत्सर्वं कथयति ॥५३४।। शिक्षयत्यालोचनाक्रम सूरि AC गा०-यतः परकी साक्षीपूर्वक की गई शुद्धि हो प्रधान है अत: दीक्षासे लेकर अबतक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें जो अतिचार लगे हैं वे सब निरवशेष सावधान चित्त होकर कहो। शङ्का-सब कहनेसे ही सबका ज्ञान हो जाता है फिर निरवशेष क्यों कहा? समाधान-ज्ञान दर्शन और चारित्रविषयक कुछ अतिचारोंको पूरी तरहसे कहने में भी सर्वशब्दकी प्रवृत्ति है, इसलिए 'निरवशेष' का ग्रहण ज्ञानादिके प्रत्येक अतिचारको ग्रहण करनेके लिए किया है । अतः कोई दोष नहीं है ॥५३२।। निरवशेष आलोचना कैसे की जाती है ? इसका उत्तर देते हैं गा०-मनवचन और कायकी प्रवृत्ति करते हुए यदि उनके दुष्प्रयोगसे अतिचार लगा हो तो उसकी पूरी तरहसे आलोचना करो ॥५३३॥ गा-इस दिनसे लेकर अमुक कालमें, अमुक देशमें, अमुक भावसे जो दोष, जिसके साथ जिस प्रकारसे किया हो वह सब कहना चाहिए। देशभेद, कालभेद, परिणामभेद, और सहायकके भेदसे दोषोंमें गुरुपना और लघुपना होता है। और दोषोंकी गुरुता और लघुताके अनुसार गुरु या लघु प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसलिए क्षपक सब कहता है ।।५३४॥ आचार्य आलोचनाके क्रमकी शिक्षा देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy