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________________ ३८९ विजयोदया टीका सव्वे वि तिग्णसंगा तित्थयरा केवली अणंतजिणा । छदुमत्थस्स विसोधिं दिसंति ते वि य सदा गुरुसयासे ॥५२९।। सर्वेषां तीर्थकृतामियमाज्ञा-गुरोनिवेद्यात्मापराधं तदुक्तं प्रायश्चित्तं कृत्वा शुद्धिः कार्येति । 'सम्वेवि तित्थयरा' सर्वेऽपि तीर्थकराः । 'तिण्णसंगा' उल्लवितपरिग्रहागाधपङ्काः । 'सव्वे वि केवली' सर्वेऽपि केवलिनः । परिप्राप्तस्वर्गावतरणादिकल्याणत्रयाः केवलज्ञानावरणक्षयादधिगतविश्वज्ञानाः केवलिनः । 'अणंतरिणा' अनन्तसंसारकारकत्वाच्चारित्रसर्वघातिमिथ्यात्वं' सम्यग्मिथ्यात्वं द्वादशकषायाश्च अनन्तं तज्जयादनन्तजिना आचार्योपाध्यायसाधवः । तेऽपि सर्वे 'सदा गुरुसकासे सोधि दिसंति' सदा गुरुसमीपे रत्नत्रयशुद्धिं दर्शयन्ति । कस्य ? 'छदुमत्थस्स' छद्मस्थस्य सम्बन्धिनीमिति केचिद्वदन्ति । रत्नत्रयपरिणामात्मको रत्नत्रयशुद्धया शुद्धो । भवतीति छद्मस्थस्य विशुद्धिरित्युच्यते इति वाऽनया ॥५२९॥ यो न वेत्त्यतिचारजातमलनिराकरणक्रमं सोऽन्यस्मै कथयेद्यस्तु स्वयं वेत्ति स कस्मात् परस्मै कथयतितदुक्तं वाचरतीत्याह जह सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं । वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो वि य पडिकम्ममारभइ ॥५३०॥ __ 'जह सुकुसलो वि वेज्जो' यथा सुष्ठु कुशलोऽपि वैद्यः । व्याधिनिरासे 'आदुरो' आतुरः । 'अण्णस्स कहेइ' अन्यस्मै कथयति । 'रोग' व्याधि । एवंभूतो मम व्याधिः, चिकित्सां कुर्विति । 'वेज्जस्स तस्स सोच्चा' तस्य वैद्यस्य श्रुत्वा वचनं । 'सो वि य' सोऽपि च आतुरो३ वैद्यः । - 'पडिक्कममारभवि' प्रतिक्रियामारभते ॥५३०॥ सब तीर्थंकरोंकी यह आज्ञा है कि गुरुसे अपने अपराधको निवेदन करके, वे जो प्रायश्चित्त कहें उसे करके शुद्धि करना चाहिए । यही कहते हैं गा०-टी०-परिग्रहरूपी अथाह कीचड़को लाँघनेवाले सभी तीर्थंकर, स्वर्गसे अवतरण, जन्म और दीक्षा इन तीन कल्याणकोंको प्राप्त करके, केवलज्ञानावरणके क्षयसे समस्त विश्वको जाननेवाले केवलज्ञानी, तथा अनन्तसंसारका कारण होनेसे चारित्रका सर्वघात करनेवाले मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायको अनन्त कहा है। उनको जीतनेसे आचार्य, उपाध्याय और साधु अनन्तजिन कहे जाते हैं। ये सभी सदा गुरुके समीपमें रत्नत्रयकी शुद्धि करनेको कहते हैं । यह शुद्धि छद्मस्थ अवस्थासे सम्बन्ध रखती है ऐसा कोई कहते हैं। अथवा रत्नत्रयके परिणामवाला आत्मा रत्नत्रयको शुद्धिसे शुद्ध होता है इससे उसे छद्मस्थकी विशुद्धि कहते हैं ॥५२९॥ ___ जो मुनि अतिचारसे उत्पन्न मलको दूर करनेका क्रम नहीं जानता उसका दूसरे आचार्यादि से कहना उचित है। किन्तु जो स्वयं जानता है वह दूसरेसे क्यों कहता है और क्यों उसके कहे अनुसार आचरण करता है इस शंकाका उत्तर देते हैं गा०-जैसे अत्यन्त निपुण भी वैद्य रोगी होनेपर अपना रोग दूसरे वैद्यसे कहता है और . उस वैद्यको चिकित्सा सुनकर वह रोगी वैद्य उसका कहा इलाज प्रारम्भ करता है ॥५३०॥ १. मिथ्यात्वं द्वाद-आ०म० । २. त्रयशुद्धया भवतीति छद्मस्थस्य विशुद्धिरित्युक्तवानयं आ०म० । ३. अनातुरो आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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