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________________ भगवती आराधना २. गाथा १७ की टीकामें अपराजितसरिने तो इतना ही लिखा है कि भद्दण आदि राजपुत्र जो अनादि मिथ्यादृष्टि थे उसी भवमें त्रसपर्यायको प्राप्त करके प्रथम जिनदेवके पादमूलमें प्रवजित होकर सिद्ध हुए। आशाधरजीने उन्हें भरतचक्रवर्तीके पुत्र लिखा है तथा उनकी संख्या ९२३ लिखी है। किसी अन्य टीकामें ऐसा निर्देश होना चाहिए। ३. गाथा पच्चीसमें सतरह मरण कहे हैं । आशाधरजीने दो आर्या द्वारा ये भेद कहे हैं आवीचितद्भवावध्याद्यन्तसशल्यगृध्रपृष्ठमतीः । जिघ्रासव्युत्सृष्टवलाका-संक्लिश्यमरणानि ॥११॥ शिशु शिशु शिशु शिशुपंडितमती: सभक्तोज्झनेंगिनीमरणम् । प्रायोपगमनपंडितपण्डितमरणे च सप्तदश विद्यात् ॥२॥ ये दो आर्या किसके हैं यह ज्ञात नहीं होता। ४. गाथा २७ की टीकामें 'टीकाकारस्तु' करके विजयोदयाका मत दिया है। ५. गाथा ४३ (४४) की टीकामें लिखा है-'श्रीविजयाचार्य मिथ्यात्व सेवाको अतिचार नहीं मानते ।' आगे टीकाका उद्धरण भी दिया है। .. ६. गाथा ४४ (४५) की टीकामें 'टीकाकारास्तु उवगृहणमित्यस्य उपवृहणं वद्धनमित्यर्थमकथयत्' । यहाँ 'टीकाकाराः' बहुवचन निर्देश होनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि विजयाचार्यके सिवाय अन्य टीकाकारोंने भी उवगृहणका अर्थ उपवृहंण किया है। ७. गाथा ४६ (४७) की टीकामें विजयोदयाका ही अनुसरण प्रायः अक्षरशः है। ८. गा० १२१ (११९) की टीकामें लिखा है 'टीकाकारस्तु पच्छिदसंसाहणा इति पठति । व्याख्याति च आचार्योपाध्यायादिभिः प्रार्थितस्य मनसाभिलषितस्य सम्यक्प्रसाधनं अनाज्ञप्तस्यापीङ्गितेनैवावगम्य' ऐसा कथन विजयोदयामें तो नहीं है । तब यह कोई अन्य संस्कृत टीकाकार होना चाहिए। ९. गा० १५२ (१५०) की टीकामें लिखा है-इसका विस्तार टीकामें देखना चाहिए । यह टीका विजयोदया हो सकती है उसमें विस्तारसे इसका कथन है। १०. गा० १५३ (१५१) को, जिसपर विजयोदया है, आशाधर प्रक्षिप्त लिखते हैं। ११. गा० २५३ (२५१) की टीकामें आशाधरजीने उस गाथाके अनुवादरूप तीन संस्कृत अनुवाद उद्धृत किये हैं। उनमेंसे एक तो अमितगतिका है शेष दो इस प्रकार हैं षष्टाष्टमादिभक्तैरतिशयवद्भिर्बली हि भुंजानः । मितलघुमाहारविधिं विदधात्यमलाशनं बहुशः ।। 'समोऽथ षष्टाष्टमकैस्ततो विकृष्टैर्दशमैः शमात्मकः । तथा लघु द्वादशकैश्च सेवते मितं मुदा चाम्लमनाविलो लघुः ।। १२. गा० २८२ (२८०) में 'गाहुग' पद आया है। विजयोदयाके अर्थको देकर आशाधरने लिखा है-'ग्राह्यामित्यपरे पठन्ति । ये अपरे कोई अन्य टीकाकार होने चाहिए । १३. गा० ४०५ (४०३) में आये पाठको लेकर आशाधरजीने लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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