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________________ विजयोदया टोका ३५९ तम्हा णिव्विसिदव्वं ववहारविदो हु पादमूलम्मि । तत्थ हु विज्जा चरणं समाधि सोधी य णियमेण ॥४५६॥ 'तम्हा णिग्विसिदव्वं' तस्मात्स्थातव्यं । 'ववहारवदो खु' व्यवहारवतः एव । 'पादमूलम्मि' पादमूले । 'तत्थ खु' तत्र व्यवहारवित्पादमले। 'विज्जा' विद्या ज्ञानं भवति । 'चरणं समाधी य' चारित्रं समाधिश्च । 'सोधी य' शद्धिश्च । 'णियमेण' निश्चयेन भवति । ववहारबं ॥४५६।। पगुन्वी एतद्व्याचष्टे-- जो णिक्खमणपवेसे सेज्जासंथारउवधिसंभोगे । ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे ॥४५७॥ 'जो णिक्खमणपवेसे' यो यः सूरिः क्षपकस्य वसतेनिःक्रमणे प्रवेशे वा । 'सेज्जासंथारउवधिसंभोगे' वसतेः, संस्तरस्य, उपकरणस्य शोधने । 'ठाणणिसेज्जागासे' स्थाने, निषद्यावकाशे, 'अगदूणविकिंचणाहारे' शय्यायां, शरीरमलाहरणे, भक्तपानढोकने च ॥४५७।। अब्भुज्जदचरियाए उवकारमणुत्तरं वि कुव्वंतो । सव्वादरसत्तीए वट्टइ परमाए भत्तीए ॥४५८॥ 'अन्भुज्जदचरियाए' क्षपकस्य अभ्युद्यतचर्यया 'उपकारं' अनुग्रहं हस्तावलम्बनादिक । 'अणुत्तरं पकुव्वंतो' उत्कृष्टं प्रकुर्वन् । 'सम्वावरसत्तीए' सर्वादरशक्त्या । 'भत्तीए' भक्त्या । 'परमाए' उत्कृष्टया । 'वट्टदि' वर्तते । स प्रकुर्वकः सूरिभवति इति संबन्धः ॥४५८॥ इय अप्पपरिस्सममगणित्ता खवयस्स सव्वपडिचरणे । वटेतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ ॥४५९।। 'इय' एवं । 'अप्पपरिस्सम' आत्मपरिश्रमं । 'अगणित्ता' अपरिगणय्य। 'खवयस्स' आराधकस्य । 'सव्वपडिचरणे' सर्वशुश्रूषायां । 'वटतो' वर्तमानः । 'आयरिओ' आचार्यः । 'पगुव्वगो णाम' 'प्रकारको नाम 'सो होदि' स भवति । पकुव्वी गदं ॥४५९।। इसलिये क्षपकको प्रायश्चित्तके ज्ञाता आचार्यके पादमूलमें ही ठहरना चाहिये । उनके पादमूलमें रहनेसे ज्ञान, चारित्र, समाधि और शुद्धि निश्चयसे होती है ॥४५६॥ इस प्रकार व्यवहारवान्का कथन समाप्त हुआ। प्रकुवित्व गुणका कथन करते हैं गा-जो आचार्य क्षपकके वसतिसे निकलने अथवा उसमें प्रवेश करनेमें, वसति संस्तर और उपकरणके शोधनमें, खड़े होने, बैठने, सोने, शरीरसे मल दूर करनेमें, खानपान लाने में, इन पण्डितमरण सम्बन्धी चर्या में समस्त आदर शक्तिसे और उत्कृष्ट भक्तिसे हस्तावलम्बन आदि . द्वारा उत्कृष्ट उपकार करते हैं, वह आचार्य प्रकुर्वक होते हैं ।। ४५७४५८॥ गा-इस प्रकार अपने श्रमकी परवाह न करके जो आचार्य क्षपकको सब प्रकारसे सेवा करते हैं वह प्रकारक नामसे कहे जाते हैं ।। ४५९।। १. प्रकुर्वको मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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