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________________ ३५२ भगवती आराधना प्रपीयते ह्यम्बु तृषाप्रशान्त्य अन्नाशनायाशनमश्यते च । वेश्माम्बुवातातपवारणार गुह्यप्रतिच्छादनमम्बरं च ॥ ७॥ शीतापनुत्प्रावरणं च दृष्टं शय्या च निद्राश्रमनोदनाय । यानानि चाध्वधमवारणार्थ स्नानं श्रमस्वेदमलापनत्यै ॥८॥ स्थानश्रमस्यौषधमासनं च दुर्गन्धनाशाय च गन्धसेवा। वैरुप्यनाशाय च भूषणानि कलाभियोगोऽरतिबाधनाय ॥९॥ तथेह सर्व परिचिन्त्यमानं भोगाभिधानं सुरमानुषाणाम् । दुःखप्रतीकारनिमित्तमेव भैषज्यसेवेव हाहितस्य ॥१०॥ पित्तप्रकोपेन विदह्यमाने द्रव्याणि शीतानि निषेवमाणः । मन्येत भोगा इति तानि योज्ञः कुर्वीत सोऽन्नादिषु भोगसंज्ञाः ॥१६॥ यतश्च नैकान्तसुखप्रदानि द्रव्याणि तोयप्रभृतीनि लोके । अतश्च दुःलाप्रतिकारबुद्धि तेषु प्रकुर्यान्न तु भोगसंज्ञाम् ॥१२॥ क्षुधाभिभूतस्य हि यत्सुखाय तदेव तृप्तस्य विषायतेऽन्नम् । उष्णादितः काङ्क्षति यानि चेह तान्येव विद्वेषकराणि शीते ॥१३॥ किं च स्वचक्रविक्रमाकान्तदेवमानवविद्याधरचक्राणां निकटोपनिविष्टाक्षयनवनिधीनां, समधिगतचतुर्दशरत्नानां, चक्रलाञ्छनानां, दशाङ्गभोगानुभवचतुराणां तथा सुधाशनानामप्यनेकसमुद्रोपमजीविना, अप्रच्यवप्रत्यप्रयौवनानां, सहजस्वेच्छानुसारिदिव्याभरणमाल्यवसनसंपत्सौभाग्यस्कन्धेन मनोनयनवल्लभरूपप्रसूनोज्ज्वलेन पहले हए दुःखके बिना उसमें किञ्चित भी सख प्रतीत नहीं हो सकता। प्यासकी शान्तिके लिए पानी पिया जाता है और भूखको शान्तिके भोजन किया जाता है। पानी, हवा और घामसे बचनेके लिए मकान होता है और गुह्यभागको ढकनेके लिए वस्त्र होता है। ठंडसे वचनेके लिए ओढ़ना होता है। निद्रा तथा थकान दूर करनेके लिए शय्या होती है। मार्गके श्रमसे बचनेके लिए सवारी होती है। थकान, पसीना और मल दूर करनेके लिए स्नान होता है। बैठनेके श्रमका इलाज आसन है। दुर्गन्ध दूर करनेके लिए सुगन्धका सेवन होता है। विरूपताको दूर करनेके लिए आभूषण पहने जाते हैं। अरतिको दूर करनेके लिए कलाएं हैं। इस प्रकार विचार करने पर देव और मनुष्योंके जो ये भोग हैं वे सब दुःखको दूर करनेमें ही निमित्त हैं। जैसे रोगसे पीड़ित रोगी औषधिका सेवन करता है । पित्तके प्रकोपसे शरीरके जलने पर जो शीत पदार्थोके सेवनको भोग मानता है वही अज्ञानी अन्न आदिको भोग नामसे कहता है। किन्तु यतः लोकमें जल आदि पदार्थ एकान्तसे सुख देनेवाले नहीं हैं अतः उनको दुःखका प्रतीकार करनेवाला ही कहना चाहिए, भोग नामसे नहीं कहना चाहिए। जो अन्न भूखसे पीडितको सुख देता है वहो अन्न पेटभरे व्यक्तिको विषके समान लगता है । गर्मीसे पीड़ित मनुष्य जिन पदार्थों की इच्छा करता है, शीतसे पीड़ित उन्हींसे द्वष करता है। तथा अपने चक्ररत्नसे देव, मनुष्य और विद्याधरोंके समूहको वशमें करनेवाले, अक्षय नौ निधियोंके स्वामी और चौदह रत्नोंसे सम्पन्न चक्रवर्तियों की, जो दस प्रकारके भोगोंको भोगनेमें चतर हैं. भोगोंसे तप्ति नहीं होती। तथा अनेक सागरोंकी आयवाले अमतभोजी टेवोंकी अनेक सागरोंकी आयुवाले अमृतभोजी देवोंकी भी भोगोंसे तृप्ति नहीं होती जो देवांगनारूपी लताओंके वनसे घिरे रहते हैं। वे देवांगना लताएं भी कैसी हैं ? जो जन्मजात अपने इच्छानुसार दिव्य आभरण, माला, वस्त्र सम्पदारूपी सौभाग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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