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________________ विजयोदया टोका ३३९ सो तेण विडझंतो पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो । कलुणं कोलुणियं वा जायणकिविणतणं कुणइ ।।४४०॥ 'सो तेण विडझंतो' स क्षपकस्तेन प्रथमेन द्वितीयेन वा । “विडशंतो' विविधं दह्यमानः । 'पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो' प्राप्य शुभपरिणामस्य भेदं "विडझंतो' 'अप्पसुदो' अल्पश्रुतः । 'कलुणं कोलुणियं च कुणदि' यथा शृण्वतां करुणा भवति तथा करोति । 'जायणं च कुणदि' याञ्चां वा करोति । 'किविणत्तणं कुणदि' दीनतां वा करोति ॥४४०॥ उक्कूवेज्ज व सहसा पिएज्ज असमाहिपाणयं चावि । गच्छेज्ज व मिच्छत्तं मरेज्ज असमाधिमरणेण ॥४४१॥ “उक्कूवेज्ज व सहसा' पूत्कुर्याद्वा सहसा । 'पिएज्ज' पिबेद्वा । 'असमाधिपाणगं चावि' असमाधिपानकमुच्यते यत्स्वयं स्थित्वा स्वहस्ताभ्यां काले प्रायोग्यपानं ततोऽन्यदस्थित्वा अकाले च यत्पानं तदसमाधिपानकमच्यते । 'गच्छज्ज व मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं वा गच्छेत । कष्टोऽयं धर्मः किमनेन श्रमविधायिनेति निन्दापरेण चेतसा । 'मरेज्ज असमाधिमरणेण'मृतिमुपेयात् असमाधिना ।।४४१॥ । संथारपदोसं वा णिब्भच्छिज्जंतओ णिगच्छेज्जा । कुव्वंते उड्डाहो णिच्चुभते विकिंते वा ॥४४२।। 'संथारपदोस वा कुणदि' इति शेषः, संस्तरं वा दुष्यति । 'णिन्भच्छिकज्जंतगो णिगच्छेच्च' रोदनं प्रत्कारं वा कुर्वन्तं यदि निभर्स्यन्ति निर्यायात् । 'कुम्वंते' पूत्कुर्वति सति क्षपके । 'उड्डाहो' भवति । "णिच्चुभंते' बहिनिःसरणे । 'विकिते वा' पृथक्करणे वा । 'उड्डाहो होदि' धर्मदूषणो भवति । एवमगृहीतार्थः प्रतिकारानभिज्ञो नाशयति क्षपकम् ।।४४२॥ गृहीतार्थः पुनः किं करोतीति चेदाह गीदत्थो पुण खवयस्स कुणदि विधिणा समाधिकरणाणि । कण्णाहुदीहिं उव-गहिदो य पज्जलइ ज्झाणग्गी ॥४४३॥ गा०-वह अल्पज्ञानी क्षपक भूख प्याससे पीड़ित हो शुभभावको छोड़ देता है और ऐसा रुदन करता है कि सुननेवालोंको दया आती है, याचना करता है और दीनता प्रकट करता है ।।४४०।। गा०-अथवा सहसा चिल्लाने लगता है अथवा असमाधिपानक पीता है। स्वयं खड़े होकर अपने दोनों हाथोंसे भोजनके कालमें जो योग्यपान किया जाता है उससे अन्य विना खड़े हुए अस पयमें जो पान किया जाता है उसे असमाधिपानक कहते हैं। तथा यह धर्म कष्टदायक है इससे केवल श्रम ही होता है ऐसे निन्दायुक्त चित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त होता है असमाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होता है ।।४४१॥ ___गा०-अथवा वह संस्तरको दोष देता है । रोने चिल्लानेपर उसका तिरस्कार करो तो बाहर भाग जायेगा। उसके रोने चिल्लानेपर, या बाहर निकल जानेपर अथवा संघसे निकाल देनेपर धर्ममें दूषण लगता है। इस प्रकार अज्ञानी आचार्य प्रतीकार न जानता हुआ क्षपकका जीवन नष्ट कर देता है ।।४४२॥ गृहीतार्थज्ञानी आचार्य क्या करता है यह कहते हैं१. उवढोइदो आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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