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________________ ३३० भगवती आराधना ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठः स्थितिकल्पः । अचेलतायां स्थितः उद्देशिकराजपिण्डपरिहरणोद्यतः गुरुभक्तिकृद्विनीतो व्रतारोपणार्हो भवति । उक्तं च-- आचेलक्के य ठिदो उद्देसादी य परिहरदि दोसे । गरुभत्तिको विणीओ होदी वदाणं सया अरिहो ॥ [ ] इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः, श्रावकश्राविकावर्गाय च व्रतं प्रयच्छेत् । स्वयं स्थितः सूरिः स्ववामे देशे स्थिताय विरताय व्रतानि दद्यात् । उक्तं च विरदी सावगवग्गं च णिविटुं ठविय तं च सपडिमुखे। विरदं च ठिदो वामे ठवियं गणिदो उपट्ठाघो उवट्ठवेज्ज ॥ [ ] इति ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतं वृत्तिकरणं छादनं संवरो विरतिरित्येकार्थाः । उक्तं च णाऊण अब्भुवेच्चय पावाणविरमण वदं होई। विदिकरणं छादणं संदरो विरदित्ति एगट्ठो ॥ [ ] इति । आद्यपाश्चात्त्यतीर्थयो रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि पंच महाव्रतानि । तत्र प्राणवियोगकरणं प्राणिनः प्रमत्तयोगात्प्राणवधस्ततो विरतिरहिंसाव्रतं । यलोकभाषणेन दुःखं प्रतिपद्यन्ते जीवाः इति मत्वा दयावतो यत्सत्याभिधानं तद्वितीयं व्रतं । ममेदमिति संकल्पोपनीतद्रत्यवियोगे दुःखिता भवन्ति इति तद्दयया .६ जीवोंके भेद-प्रभेदोंको जानने वालेको ही नियमसे व्रत देना चाहिए। यह छठा स्थितिकल्प है। जो अचेलतामें स्थित हो, उद्दिष्ट और राजपिण्डका त्याग करनेमें तत्पर हो, गुरुकी भक्ति करने वाला हो, विनयी हो, वही व्रत देनेके योग्य होता है। कहा है ___ 'जो अचेलकपने में स्थित है और उद्दिष्ट आदि दोषोंका सेवन नहीं करता, गुरुका भक्त । और विनीत है वह सदा व्रतोंको धारण करनेका पात्र होता है।' यह व्रत देनेका क्रम है- गुरुजनोंके स्वयं रहते हुए आचार्य स्वयं स्थित होकर सामने स्थित विरत स्त्रियोंको श्रावक श्राविका वर्गको व्रत प्रदान करे । तथा अपने वाम देशमें स्थित विरतोंको व्रत प्रदान करे । कहा है ___ 'विरत स्त्रियोंको और श्रावक वर्गको अपने सामने स्थित करके और विरत पुरुषोंको अपने वाम भागमें स्थापित करके गणि व्रत प्रदान करें।' इस प्रकार जानकर तथा श्रद्धा करके पापोंसे विरत होना व्रत है। वृत्तिकरण छादन, संवर और विरति, ये सब शब्द एकार्थक हैं। कहा है-'जानकर और स्वीकार करके पापोंसे विरत होना व्रत है। वृत्तिकरण, छादन, संवर, विरति ये सब एकार्थक है।' प्रथम और अन्तिम तीर्थ करके तीर्थमें रात्रिभोजन त्यागनामक छठे व्रतके साथ पाँच महाव्रत होते हैं। प्रमादयुक्तभावके सम्बन्धसे प्राणिके प्राणोंका वियोग करना हिंसा है और उससे विरति अहिंसा व्रत है। झूठ बोलनेसे जोव दुःखो होते हैं ऐसा मानकर दयालु पुरुषका सत्य बोलना दूसरा व्रत है। जिसमें 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प है उस द्रव्यके चले जानेपर जीव दुःखी होते हैं। इसलिए उसपर दया करके बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे विरत होना तीसरा व्रत है। १. स्थितेभ्यो-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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