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________________ विजयोदया टीका ३०७ किमर्थं परगणप्रवेशं करोति इत्याशङ्कायां स्वगणावस्थाने दोषमाचष्टे सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादी य । णिब्भयसिणेहकालुणियझाणविग्यो य असमाधी ॥३८७।। 'सगणे आणाकोवो' आत्मीये गणे आज्ञाकोपः । 'फरुसं कलहपरिदावणादो य' परुषवचनं कलहो, दुःस्वादीनि च । 'णिन्भयसिणेहकोलुणिगझाणविग्घो य' निर्भयता, स्नेहः कारुण्यं, ध्यानविघ्नः । 'असमाहो' असमाधिश्च ॥३८७॥ उड्डाहकरा थेरा कालहिया खुड्डया खरा सेहा । आणाको गणिणो करेज्ज तो होज्ज असमाही ।।३८८।। 'उड्डाहकरा थेरा' अयशः संपादकाः स्थविराः । 'कालहिगा' कलहकराः । 'खुडगा' क्षुल्लकाः । 'खरा सेहा' परुषा अमार्गज्ञाः । 'आणाकोवं गणिणो करेज्ज' आज्ञाकोपं सूरैः कुर्युः । 'तो होज्ज असमाही' तस्मादाज्ञाकोपाद्भवेदसमाधिः ॥३८८॥ स्वगणे स्थविरादिकृतमसमाधिकरमाज्ञाकोपं दर्शयति परगणवासी य पुणो अन्वावारो गणी हवदि तेसु । णत्थि य असमाहाणं आणाकोवम्मि वि कदम्मि ॥३८९॥ परगणेऽप्यमी सन्त्येव स्थविरादयस्तत्राप्यसमाधानं स्यादेवास्येति शङ्कां निरस्यति । 'परगणवासी य' यः परगणे वसति गणी सो। 'अन्वायारो'ऽव्यापारः तेषु शिक्षाव्यापाररहितः । तेन आज्ञाकोपो न विद्यते किसलिये दूसरे गणमें जाते हैं ? ऐसी आशंका होने पर अपने गणमें रहनेके दोष कहते हैं गा०-अपने गणमें रहनेपर आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुख आदि, निर्भयता, स्नेह, करुणा, ध्यानमें विघ्न और असमाधि ये नौ दोष होते हैं । विशेषार्थ-अपने संघमें रहने पर किसी को आज्ञा दे और वह न माने तो परिणामोंमें क्रोधभाव हो जाय । जो कोई गलती करे तो उसे अपना जान कठोर वचन वोला जाय । किसीको हितकी प्रेरणा करें और वह न माने तो कलह पैदा हो जाय । किसीको दोष करते देखकर मनमें संताप पैदा हो सकता है। रोगवश अपने ही परिणाम बिगड़ जाये तो किसीका भय न होनेसे अयोग्य आचरण भी कर सकता है। मरते समय परिचित साधुओंमें स्नेह भाव आ सकता है। या किसी को दुःखी देखकर करुणा भाव हो सकता है। ध्यानमें वाधा पड़ सकती है और समाधि नहीं बन सकती । ये दोष अपने गणमें रहकर समाधि करने में हैं ।।३८७।। गा०तथा अपने गणमें ही रहे तो किसी भी बातको लेकर वृद्ध मुनि अपयश कर सकते है। किसीको शिक्षा देनेपर क्षुद्र अज्ञानी कलह करते हैं। मार्गको नहीं जानने वाले और कठोर स्वभाववाले मुनि आचार्यकी आज्ञा न माने तो आचार्यको कोप उत्पन्न होनेसे समाधि बिगड़ जाती है ॥३८८॥ . . गा०-दूसरे गणमें भी ये वृद्ध मुनि आदि होते ही है, अतः वहाँ भी उनकी असमाधि हो सकती है, इस शंका को दूर करते हैं जो आचार्य अपना गण त्यागकर दूसरे गणमें रहता है उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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