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________________ २७० भगवती आराधना 'मज्जाररसिदसरिसोवम' मार्जारस्य रसितं रटनं मार्जाररसितं तेन सह सादृश्यं उपमा परिच्छेदो यस्य विहारस्य तन्मार्जाररसितसदृशोपमं विहारं चरणं । 'तुम' भवान् । 'मा हु काहिसि' मा कार्षीः । मार्जारस्य रसितं प्राङ्महत् क्रमेणापचीयते तद्वद्रत्नत्रयभावनातिशयवती प्राक् क्रमेण मन्दायमाना न कर्तव्येति यावत । 'माणासेहिसी दोण्णि वि अत्ताणं चेव गच्छंच'-आत्मनो गणस्य च विनाशं मा कृथाः । प्रथममेवातिदुर्धरचारित्रतपोभावनायां प्रवृत्तो भवान् गणं च तथा प्रवय॑मानो दुश्चरतया नश्यति ।।२८५।। जो सघरं पि पलिचं णेच्छदि विज्झविदुमलसदोसेण । किह सो सद्दहिदव्वो परघरदाहं पसामेदु ॥२८६॥ 'जो सघरं पि' य स्वगृहं अपि । दह्यमानमालस्यान्न वाञ्छति विध्यापयितु कथमसौ श्रद्धातव्यः परकीयगृहदाहं प्रशमयितु उद्योगं करोतीति ।।२८६।। तस्माद्भवतवं प्रवर्तितव्यमित्याचष्टे वज्जेहि चयणकप्पं सगपरपक्खे तहा विरोधं च । वादं असमाहिकरं विसग्गिभूदे कसाए य ॥२८७॥ 'वज्जेहि चयणकप्पं' वर्जय अतिचारप्रकारं ज्ञानदर्शनचारित्रविषयं । अवाचनाकाले अस्वाध्यायकाले वा पठनं । क्षेत्रशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि वा विना । निह्नवः, ग्रन्थार्थयोरशुद्धिः, अबहुमानं इत्यादिको ज्ञानातिचारः । शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दर्शनातिचाराः । समितिभावनारहितता चारित्रातिचारः। एते च्यवनकल्पेनोच्यन्ते । 'सगपरपक्खे तहा विरोहं च' धर्मस्थेषु, मिथ्यादृष्टिषु च विरोध वर्जयेत् । चेतः समाधानविनाशकारणं वादं च वज्जणीयः । वादे प्रवृत्तो यथात्मनो जयः पराजयः परस्य वा गा०-टी०-तुम विलावके शब्दके समान आचरण मत करना । विलावका शब्द पहले जोरका होता है फिर क्रमसे मन्द हो जाता है उसी तरह रत्नत्रयकी भावनाको पहले बड़े उत्साहसे करके पीछे धीरे-धीरे मन्द मत करना । और इस तरह अपना और संघ दोनोंका विनाश न करना । प्रारम्भमें ही कठोर तपकी भावनामें लगकर आप और गणको भी उसीमें लगाकर दुश्चर होनेसे विनाशको प्राप्त होंगे ॥२८५।। गा०-टो०-जो जलते हुए अपने घरको भी आलस्यवश बचाना नहीं चाहता। उसपर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरेके जलते घरको बचायेगा ।।२८६।। ___ इसलिए आपको ऐसा करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-टी०-ज्ञान दर्शन और चारित्रके विषयमें अतिचारोंको दूर करो। जो वाचना और स्वाध्यायका काल नहीं है उसमें क्षेत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, और भाव शुद्धिके विना वाचना आदि करना, निह्नव, ग्रन्थ और अर्थकी अशुद्धि, आदरका अभाव इत्यादि ज्ञान विषयक अतिचार हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और सस्तव ये सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं। समितिकी भावना न होना चारित्रका अतीचार है । ये सब 'च्यवनकल्प' कहे जाते हैं। धार्मिको और मिथ्याष्टियोंके साथ विरोध नहीं करना चाहिए । चित्तकी शान्तिको भंग करने वाला वाद भी नहीं करना चाहिए । वाद करने वाला जिस प्रकार अपनी जय और दूसरेकी पराजय हो यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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