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________________ २३८ भगवती आराधना 'बत्तीसं किर कवला' पुरुषस्य कूक्षिपूरणो भवत्याहारः । द्वात्रिंशत्कवलमात्रः 'इत्थिआए' स्त्रियाः कुक्षिपूरणो भवत्याहारः अष्टाविंशतिकवलजातानि । 'तत्तो' तस्मादाहारात् ॥२१३।। एगुत्तरसेढीए जावय कवलो वि होदि परिहीणो । ऊमोदरियतवो सो अद्धकवलमेव सिच्छं च ॥२१४।। 'एगुत्तरसेढीए' एककवलोत्तरश्रेण्या 'परिहीणो' परिहीनः । 'ऊमोदरियतवो' अवमोदर्याख्यं तपःक्रिया यावदेककवलावशेषतया न्यून 'अद्धकवलं' अर्धकवलं यावदवशिष्टं । समप्रविभक्तं कवलमर्धकवलशब्देनोच्यते । यावदेकसिक्थकं वा अवशिष्टं । आहारस्याल्पतोपलक्षणमिदं अन्यथा कथमेकसिक्थकमात्रभोजनोद्यतो भवेत् । ननु चाहारो न्यूनः कथं तप इत्युच्यते इति केचित्कथयन्ति । आयूनतापरिहारस्य तपसो हेतुत्वात्तप इत्युच्यते अवमोयरियं । तथा च निरुक्तिः -अवमं न्यून उदरमस्यावमोदरः । अवमोदरस्य भावः कर्म च अवमौदर्यमिति ॥२१४॥ रसपरित्यागो निरूप्यते चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीदमज्जमंसमहू । कखापसंगदप्पाऽसंजमकारीओ एदाओ ।।२१५॥ 'चत्तारि महावियडीओ' चतस्रो महाविकृतयः । महत्याश्चेतसो विकृतेः कारणत्वात् महाविकृतय इत्युच्यन्ते । 'होंति' भवन्ति । 'णवणीदमज्जमंसमहू' नवनीतं, मद्यं, मांस, मधु च । कीदृश्यस्ताः ? 'कला गा०-पुरुष और स्त्रीके उक्त आहारमेंसे एक दो आदि ग्रासकी हानिके क्रमसे जब तक एक ग्रास मात्र भी शेष होता है वह अवमौदर्य तप है। जब तक अर्धग्रास ही अवशिष्ट रहे या एक सिक्थ शेष रहे तब तक भी अवमौदर्य तप है ॥२१४|| टो.--एक ग्रासके बराबर दो भाग करने पर एक भागको अर्धकवल कहते हैं । एक चावल मात्र जो कहा है वह आहारकी अल्पताका उपलक्षण है । अन्यथा कोई मात्र एक चावलका भोजन करनेके लिए कैसे तत्पर हो सकता है। शंका-थोड़ा आहार लेना तप कैसे है ? ऐसा कोई कहते हैं । समाधान–पेट भर खानेका त्याग तपका हेतु होनेसे अवमौदर्यको तप कहा जाता है। अवमौदर्यकी निरुक्ति है-'अवम' अर्थात् न्यून (कमभरा) उदर है जिसका वह अवमोदर है और अवमोदरका भाव अथवा कर्म अवमौदर्य है ।।२१४॥ रस परित्याग तपका निरूपण करते है गा०-चार महाविकृतियाँ होती हैं, मक्खन, मद्य, मांस और मधु। ये गृद्धि, प्रसंग, दर्प, और असंयमको करते हैं ।।२१५।। टो०-चित्तमें महान विकार पैदा करनेसे इन्हें महाविकृति कहते हैं। नवनीत कांक्षा अर्थात् गृद्धिको उत्पन्न करता है। मद्य प्रसंग अर्थात् पुनः पुनः अगम्या स्त्रीके साथ भोगविलास कराता है। मांस इन्द्रियोंमें मद पैदा करता है। मधु असंयमको उत्पन्न करता है असंयमके दो भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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