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________________ विजयोदया टीका २२७ रागकोपपरिणामानां कर्मास्रवहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिज्ञानपुरःसरतपोभावनया विषयसुखपरित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवन्ति इन्द्रियाणि । पुनः पुनः सेव्यमानं विषयसुखं रागं जनयति । न भावनान्तरान्तहितमिति मन्यते ॥१९॥ तपोभावनारहितस्य दोषमाचष्टे उत्तरप्रवन्धेन सदृष्टान्तोपन्यासेन इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजियपरस्सो। अकदपरियम्म कीवो मुज्झदि आराहणाकाले ।।१९।। 'इंदियसुहसाउलओ' इन्द्रियसुखस्वादलम्पटो। 'घोरपरीसहपराजियपरस्सो' परीषहैः घोरैः दुःसहः क्षुदादिभिः पराजितोऽभिभूतः सन् यः पराङ्मुखतां गतो रत्नत्रयस्य । 'अकदपरियम्म कीवो' अकृतं परिकर्म तपआराधनाया येनासौ अकृतपरिकर्मा । 'कीवो' दीनः । 'मुज्झइ' मुह्यति विचित्ततामाप्नोति । 'आराहणाकाले' आराधनायाः काले ॥१९॥ अत्र दृष्टान्तमाह जोग्गमकारिज्जतो अस्सो सुहलालिओ चिरं कालं । रणभूमीए वाहिज्जमाणओ जह ण कज्जयरो ॥१९२।। 'जोग्गमकारिजंतो' वाक्चालनभ्रमणलङ्घनादिकां शिक्षा अकार्यमाणः । 'अस्सो' अश्वः । 'सुहलालिओ' सुखलालितः । 'चिरं कालं रणभूमीए' युद्धभूमौ । 'वाहिज्जमाणगो' वाह्यमानः । 'जह ण कज्जकरों' यथा कार्य न करोति तथा यतिरपि ॥१९२।। सुगमत्वान्न व्याख्यायते गाथात्रयम् तवभावणा पुवमकारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले । ण भवदि परीसहसहो विसयसुहे मुच्छिदो जीवो ॥१९३॥ । समाधान-इन्द्रियके विषयमें होनेवाले राग द्वेषरूप परिणाम कर्मोके आस्रवमें हेतु होते हैं इसलिये वे अहितकारी हैं। इस परिज्ञानपूर्वक तपोभावनासे किये गये अनशन आदिसे जो कि विषय सुखके परित्यागरूप है, इन्द्रियाँ दमित होती हैं। बार बार सेवन किया गया विषय सुख रागको उत्पन्न करता है । किन्तु भावनासे दमित हुआ नहीं करता !!१९०॥ जो तपभावनासे रहित है उसका दोष दृष्टान्तपूर्वक आगेकी गाथासे कहते हैं गा०—जो इन्द्रिय सुखके स्वादमें आसक्त है, भूख आदिको दुःसह परीषहोंसे हारकर रत्नत्रयसे विमुख हुआ है, जिसने परिकर्म-आराधनाके योग्य तप नहीं किया है वह दीन आराधना के कालमें विचित्त हो जाता है उसका मन इधर-उधर भटकता है ॥१९१॥ इसमें दृष्टान्त देते हैं गा०-जैसे जिस घोड़ेको शब्दके संकेत पर चलने, भ्रमण, लंघन आदिकी शिक्षा नहीं दी गई है और चिरकाल तक सुखपूर्वक लालन पालन किया गया है वह घोड़ा युद्धभूमिमें सवारीके लिये ले जाया गया कार्य नहीं करता वैसे ही यति भी जानना ।।१९२।। आगेकी तीन गाथाएँ सुगम हैं अतः उनकी टीका नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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