SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका २०५ धूलिप्रवेशे सकण्टकादिविद्धे वा स्वयं न निराकुर्वन्ति । परे यदि निराकुर्युस्तूष्णीमवतिष्ठन्ते । तृतीययाम एव नियोगतो भिक्षार्थं गच्छन्ति । यत्र क्षेत्रे षट्गोचर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तत्क्षेत्रमावासप्रयोग्यं शेषमयोग्यमिति वर्जयन्ति । क्षेत्र, तीर्थ, कालश्चारित्रं, पर्यायं श्रुतं वेदः, लेश्या, ध्यानं, संहननं, संस्थानं, आयामो गात्रस्य, आयुः, लब्धयः, अतिशयज्ञानोत्पत्तिः, सिद्धिरित्येतेऽनियोगा इहानुगन्तव्याः । क्षेत्रतः भरतैरावतयोः, प्रथमपाश्चात्ययोः तीर्थे, उत्सर्पिणी - अवसर्पिण्योः कालतः, छेदोपस्थापनाप्रभवाश्चारित्रतः, प्रथमतीर्थकरकाले देशोनपूर्वकोटीकायकालः । विशतिवर्षाग्रः शतवर्षकालः पाश्चात्यतीर्थे । जन्मतस्त्रिशद्वर्षाः पर्यायतः एकोनविंशतिवर्षाः । श्रुतेन च दशपूर्विणः, वेदेन पुरुषवेदाः, लेश्यातस्तेजः पद्मशुक्ललेश्याः, धर्मध्यानपरा ध्यानतः, आद्यत्रिकसंहननाः षट्स्वन्यतरसंस्थानाः । सप्तहस्तादिपञ्चधनुः शतायताः अष्टादशमासाः पूर्वकोटी वा आयुः । चारणताहारसिद्धिः विक्रियाहारद्धिश्च लब्धयः । अवधिमनः पर्ययं केवलं वा योगसमाप्तौ प्राप्नुवन्ति । सिद्धयन्ति वा परेषां । संक्षेपतः परिहार विधिवर्णना । जिनकल्पो निरूप्यते - जितरागद्वेषमोहा, उपसर्गपरिषहारिवेगसहाः, जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानां । इतरो लिङ्गादिराचारः प्रायेण व्यावणितरूप एव । क्षेत्रादिभिर्निरूप्यते - सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति जिनकल्पिकाः । कालः सर्वदा । सामायिकच्छेदोपस्थापने वा यदि दुष्ट हुए तो एक पग भी नहीं चलते । नेत्रोंमें धूल चले जानेपर या काँटा आदि लग जानेपर स्वयं नहीं निकालते । यदि दूसरे निकालते हैं तो चुप रहते हैं । नियमसे तीसरे पहरमें ही भिक्षाके लिए जाते हैं । जिस क्षेत्रमें छह भिक्षाएँ अपुनरुक्त होती हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न घरोंसे मिल जाती हैं वह क्षेत्र निवासके योग्य होता है, शेष अयोग्य होता है उसे छोड़ देते हैं । क्षेत्र, तीर्थ, काल, चारित्र, पर्याय, श्रुत, वेद, लेश्या, ध्यान, संहनन, संस्थान, शरीरकी लम्बाई, आयु, लब्धि, अतिशय ज्ञानोत्पत्ति, सिद्धि ये अनुयोग यहाँ जानना चाहिए। क्षेत्रकी अपेक्षा भरत और ऐरावत क्षेत्रमें, प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थमें, कालकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें, चारित्रकी अपेक्षा छेदोपस्थापना चारित्रसे उत्पन्न होते हैं । प्रथम तीर्थकरके कालमें उनकी आयु कुछ कम एक पूर्वकोटि और अन्तिम तीर्थंकरके कालमें एक सौ बीस वर्ष होती है । जन्मसे तीस वर्षतक भोग भोगते हैं और मुनिपर्याय उन्नीस वर्ष होती है । श्रुतसे दस पूर्व पाठी होते हैं । वेदसे पुरुषवेदी होते हैं । लेश्यासे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले होते हैं । ध्यानसे धर्मध्यानी होते हैं । आदिके तीन संहननवाले होते हैं और छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान होता है । सात हाथसे लेकर पाँच सौ धनुष लम्बे होते हैं । परिहारसंयमके कालसे जघन्य आयु अठारह मास और उत्कृष्ट आयु परिहारसंयम होनेसे पूर्वके वर्षोंसे हीन एक पूर्वकोटी हाती है । चारण ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि और आहार ऋद्धियाँ होती हैं । परिहारविशुद्धिरूप योगके पूर्ण होनेपर अवधिज्ञान, मन:पर्यय वा केवलज्ञानको प्राप्त होते हैं । मोक्ष भी प्राप्त करते हैं । यह संक्षेपसे परिहारविशुद्धिका वर्णन है । अब जिनकल्पको कहते हैं - रागद्वेष मोहको जीतते है, उपसर्ग और परीषहरूपी शत्रुओंके वेगको सहते हैं । जिनके समान एकाकी ही विहार करते हैं इसलिए जिनकल्पिक होते हैं । यही जिनकल्पिकों की विशेषता है । शेष लिंगादि आचार प्रायः उक्त प्रकार ही है । 1 क्षेत्र आदिकी अपेक्षा कथन करते हैं - जिनकल्पी समस्त कर्मभूमियोंमें होते हैं । सर्वदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy