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________________ २०० भगवती आराधना तृतीयपौरुण्यां द्विगव्यतमध्वानं गच्छन्ति । यदि गमनव्याघातो महावातेन वर्षादिना जातः समतीतगमनकाल एव तिष्ठन्ति । व्याघ्रादिका, व्यालमृगा' वा पतन्ति ततोऽपसर्पन्ति न वा पादे कण्टकालग्ने, चक्षुषि रजःप्रवेशे वा, अपनयन्ति न वा । दृढधतिकाः मिथ्यात्वचर्याराधनामात्मविराधनामवस्थां दोषान्वा तस्मात्परिहरन्ति न वा । तृतीयपौरुष्यां भिक्षार्थमवतरन्ति । कृपणवनीपकपशुपक्षिगणे अपगते पञ्चमी पिण्डैषणां कुर्वन्ति मौनं च । एका, द्वे तिस्रश्चतस्रः पञ्च वा गोचर्यो यत्र क्षेत्र तत्रालन्दिकयोगं प्रवर्तयन्ति । यस्मात्पाणिपात्रभोजी मिथ्याराधनां न वर्जयति तस्माल्लेपमलेपं वा भक्त्वा तत्प्रक्षालयन्ति । धर्मोपदेशं कुरुतः प्रव्रज्यामिच्छामि भगवतां पादमले इत्युक्ताश्चापि न मनसापि वांछन्ति किं पुनर्वचसा कायेन । इतरे तत्सहाया धर्मोपदेशं कृत्वा मशिखं मुण्डितं वा गणाधिपतयेऽपयन्ति । क्षेत्रतः सप्ततिशतधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति । कालतः सर्वदा । चारित्रतः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः । तीर्थतः सर्वतीर्थकृतां तीर्थेषु । जन्मनः त्रिंशद्वर्षजीविताः। श्रामण्येन एकोनविंशतिवर्षाः । श्रुतेन नवदशपूर्वधराः । वेदतः पुमांसो नपुंसकाश्च । लेश्यातः पद्मशुक्ललेश्याः । ध्यानेन धर्मध्यानाः । संस्थानतः षड्विधेष्वन्यतरसंस्थानाः देशोनसप्तहस्तादि यावत्पञ्चधनुःशतो याः । कालतो भिन्नमुहुर्तावूनपूर्वकोटिकाल अथवा जाते हैं। गोचरी नहीं मिलने पर तीसरे पहर में दो गव्यूति प्रमाण मार्ग चलते हैं। यदि प्रचण्ड वायु या वर्षी आदिसे गमनमें रुकावट आती है तो वहीं ठहर जाते हैं। व्याघ्र आदि अथवा सर्प मृग आदि आ जाते हैं तो वहाँसे हटते भी हैं और नहीं भी हटते । पैरमें काँटा लगने पर अथवा आँखमें धूल चली जाने पर उसे निकालते हैं, नहीं भी निकालते। 'दृढ़ धैर्यशाली वे मुनि मिथ्यात्वचर्याराधना और आत्मविराधना अवस्थाको अथवा दोषोंको दूर करते हैं अथवा नहीं करते (?) । तीसरे पहर भिक्षाके लिए निकलते हैं। कृपण, याचक, पशु-पक्षी गणके चले जाने पर पाँचवीं पिण्डैपणा करते है और मौन रखते हैं। जिस क्षेत्रमें एक, दो, तीन, चार अथवा पाँच गोचरी होती है उस क्षेत्रमें आलन्दिक योग करते हैं । यतः पाणिपात्रमें भोजन करने वाला मिथ्या आराधनाको नहीं छोडता. इसलिए वह लेप अथवा अलेपको खाकर उसका प्रक्षालन करते हैं ?' कोई आकर कहे कि धर्मोपदेश करो, मैं आपके चरणोंमें दीक्षा लेना चाहता हूँ तो ऐसा कहने पर भी वे मनसे भी उसकी चाहना नहीं करते, तब वचन और कायका तो कहना ही क्या? अन्य मुनि जो उनके सहायक होते हैं वे उन्हें धर्मोपदेश देकर शिखा सहित अथवा मुण्डन कराकर आचार्यको सौंप देते हैं। क्षेत्रको अपेक्षा एक सौ सत्तर कर्मभूमि रूप धर्मक्षेत्रोंमें ये आलन्दक मुनि होते हैं । कालकी अपेक्षा सर्वदा होते हैं। चारित्रकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रमें होते हैं । तीर्थकी अपेक्षा सब तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होते हैं । जन्मसे तीस वर्षतक गृहस्थाश्रममें रहकर उन्नीस वर्ष तक मुनि धर्मका पालन करते हैं, श्रुतसे नौ या दस पूर्वके धारी होते हैं । वेदसे पुरुष अथवा नपुंसक होते हैं ! लेश्यासे पद्म या शुक्ल लेश्यावाले होते हैं। ध्यानसे धर्मध्यानी होते हैं। संस्थानसे छह प्रकारके संस्थानोंमें से किसी एक संस्थान वाले होते हैं। कुछ कम सात हाथसे लेकर पाँचसी १. व्यालमृगाद्या यद्याप-आ० मु० । २. कुर्वतः तत्प्र-आ० । कुर्वन्त तत्प्र० मु० । ३. जीविनःआ० । ४. शतोत्सेधा-मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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