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________________ भगवती आराधना भट्टारका ! उचित एवायमुद्योगो भवतां कल्पमहीरुहा इव प्रत्युपकारनिरपेक्षा, जगदनुग्रहकारिणो हि महान्तः, मिथ्यात्वतिमिराव गुंठितज्ञान लोचनतथा विनेयजन राशिरुत्पथ प्रस्थानोऽसकृत्कुगतिगर्तपतितो निः सतु - मभिलषन्नपि असमर्थः क्लिश्यति । स च भवत्पातितायतदृढसमीचीनदृष्टिरज्ज्वावकृष्टः युष्मदुपदशितातिप्रगुणविशाल मुक्तिमार्गढौकनादनन्तज्ञानात्मकेन सुखेन सुखी भवत्वित्यभिधाय गतेषु सारस्वतादिषु । १८६ जिननिर्वेदसमीरणान्दोलितहरिविष्टरो हरिः प्रणिधानप्रवर्तितावधिलोचनाधिगतगुरुप्रारभ्यमाणकार्यः, सिंहासनतः ससंभ्रममुत्थाय, स्वामिसमवस्थितदिगभिमुखं गत्वा सप्तपदमात्रं, ललाटतटविन्यस्तेन प्रबुद्धनलिनदलच्छायापहा सिना, अंकुशकुलिशकलशादिलक्षणोद्भासिना दक्षिणेन करेणालंकृतमौलिरत्नप्रभादंतुरमवनम्य शिरः सलीलं नमः सद्धर्मतीर्थ प्रवर्तनोद्यतेभ्यः शरणागतविनेयत्राणकारिभ्योऽलौकिक नयनेभ्यो जिनेभ्य इत्यभिधाय, पुरोधावभेरीध्वानादिभिर्झटिति विदितकार्येण समुदितावनतेन स्वनायकपुरोयायिना, विचित्रातपत्रशस्त्रवस्त्रविभूषण वाहनोज्ज्वलेन गीर्वाणचक्रेणानुगम्यमानः सौधर्मः सह नरामरेन्द्रः, चमररुहहरिविष्टरश्वतातपत्रादिपरमेश्वरलांछनमखिलमपहाय प्रतीहारनिवेदितागमनस्तदाज्ञयाशु धर्मचक्रलांछनांतिकमवाप्य सबहुमानप्रणाममारभते स्म । ततो जिनात्सादरावलोकनप्रसादमात्मोचितमुपलभ्य विज्ञापनं करोति । सकलोऽयमायातोऽच्युताधिपपुरःसरः शक्रलोको भट्टारकाणां परिनिष्क्रमणपरिचर्यामुपपादयितुमना अवगतमुक्तिमार्गोऽप्ययं स्वाधीनज्ञानात्म भगवन् ! आपका यह उद्योग उचित ही है । महान् पुरुष कल्पवृक्षकी तरह प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके जगत् पर अनुग्रह करते हैं । मिथ्यात्व रूपी अन्धकारसे ज्ञानरूपी दृष्टिके अवरुद्ध हो जानेसे संसारके भव्य जीव कुमार्गमें चल पड़ते हैं । बार-बार कुगतिरूपी गढ़में गिरकर निकलना चाहते हुए भी नहीं निकल पाते और कष्ट भोगते हैं । आपके द्वारा डाली गई विस्तृत दृढ़ समीचीन दृष्टिरूपी रस्सीके द्वारा खींचे गये वे भव्य जीव आपके द्वारा बतलाये गये गुणशाली विशाल मोक्षमार्ग पर चलकर अनन्त ज्ञानात्मक सुखसे सुखी हों । इतना कहकर वे लौकान्तिक देव चले जाते हैं । भगवान्‌के वैराग्यरूपी हवाके झकोरोंसे इन्द्रका सिंहासन कम्पित होता है । तब इन्द्र अवधिज्ञान रूपी दृष्टिका उपयोग करके भगवान् के द्वारा प्रारम्भ किये जाने वाले कार्यको जानता है । तत्काल सिंहासनसे उठ, जिस दिशा में भगवान् हैं उस दिशाकी ओर सात पद चलकर, खिले हुए कमलकी पांखुरीकी शोभाको तिरस्कृत करने वाले और अंकुश, वज्र, कलश आदि शुभ लक्षणोंसे शोभित दाहिने हाथको मस्तकसे लगाकर मुकुटके रत्नोंकी प्रभासे भासित सिरको नवाकर कहता हैं - 'समीचीन धर्मरूप तीर्थंके प्रवर्तनके लिये उद्यत, शरणागत भव्य जनोंकी रक्षा करने वाले और अलौकिक नेत्रोंसे विशिष्ट जिनदेवको नमस्कार हो । भेरी आदिके शब्दसे सब देवोंको ज्ञात हो जाता है । नाना प्रकारके छत्र, शस्त्र, वस्त्राभूषण और वाहनोंके साथ अपने नायकको आगे करके सब देव सौधर्मके पीछे चलते हैं । सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रों और राजाओंके साथ राजमहलके द्वार पर पहुँच सिंहासन, चमर छत्र, आदि इन्द्रत्वके सत्र चिह्नोंको दूर करके द्वारपालसे अपने आनेका समाचार निवेदन कराता है । आज्ञा मिलने पर इन्द्र तत्काल धर्मचक्र प्रवर्तक भगवान्के समीप जाकर अत्यन्त बहुमान पूर्वक नमस्कार करता हैं । जिनदेव इन्द्रकी ओर आदरपूर्वक देखते हैं । भगवान् के इस सादर अवलोकनको ही अपने योग्य प्रसाद मानकर इन्द्र निवेदन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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