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________________ विजयोदया टीका १२३ जोवेभ्यः कथंचिदन्यदेशकालस्वभावभेदात् । ततः बाधायां दुष्परिहारायां जीवा एव दुष्परिहारा एव भवंतीति मन्यते । अन्यथा हस्तेनापनेतु शक्याः कथं दुष्परिहाराः स्युः । न केवलं तत्रोत्पन्ना एव दुष्परिहारास्तथा तेनैव प्रकारेण जीवाः 'आगंतुका य' अन्यत आगताश्च कीटादयश्च । एतेन हिंसादोष आख्यातः ।।८७।। जगाहि य लिक्खाहि य बाधिज्जंतस्स संकिलेसो य। संघट्टिजंति य ते कंडुयणे तेण सो लोचो ॥ ८८ ॥ जूवाहि य यूकाभिश्च । लिक्खाहिं य लिक्षाभिश्च । 'बाधिज्जतस्स'. वाध्यमानस्य यतेः संकिलेसो य संक्लेशश्च जायते इति शेषः । स च क्लेशोऽशभपरिणामः पापात्रवः पूर्वोपात्तकर्मपदगलरसाभिवर्द्धननिपुणः । अथवा बाधिज्जंतस्स भक्ष्यमाणस्य संकिलेसोय दुःखं वा । तथा चोक्तं-क्लिश विवाधने इति । एतेनात्मविराधनादोपः सूचितः । अथ तद्भक्षणे असहमानः कंड्यति तत्र दोषमाह-'संघटिज्जंति य' संघट्यंते ते यूकादयः । आगंतुकाश्च 'कंडूयणे' कंडूकरणे । 'तेण' तेन दोषेण हेतुनासो आगमदृष्ट: 'लोचो' लोचः क्रियते इति शेषः । प्रदक्षिणावर्तः केशश्मश्रुविषयः हस्तांगुलीभिरेव संपाद्यः द्वित्रिचतुर्मासगोचरः ॥८८॥ एवं लोचाकरणे दोषानुद्भाव्य लोचे गुणख्यापनाय गाथात्रयमुत्तरम् लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिव्वियारत्तं । तो णिव्वियारकरणो पग्गहिददरं परक्कमदि ।।८९॥ पहुँचती है। बाधाका मतलब है कि भिन्न देश, भिन्नकाल और भिन्न स्वभाव होनेसे जीवोंसे जीवोंको बाधा पहुँचतो है । उस बाधाको दूर करना अशक्य जैसा है। जब बाधा ही दुष्परिहार है तो उन जीवोंको दूर करना भी दुष्परिहार है, क्योंकि यदि बाधा पहुँचनेकी बात न होती तो उन्हें हाथसे निकाला जा सकता था। तथा जो जीव केशोंमें उत्पन्न होते हैं वे ही दुष्परिहार नहीं है, अन्यत्रसे आकर भी कीटादि वालोंमें घुस जाते हैं उन्हें भी दूर करना कठिन होता है। इस तरहसे केशलोच न करने में हिंसादि दोष कहे हैं ।।८७|| गा०-गँ से और लीखोंसे पीड़ित साधुके संक्लेश उत्पन्न होता है। खुजाने पर वे जूं आदि पीड़ित होते हैं इस कारणसे वह केशलोच किया जाता है ।। ८८ ॥ टी०-जू और लीख जब साधको बाधा पहुँचाती है तो साधुको संक्लेश होता है। वह संक्लेश अशुभ परिणाम रूप होनेसे पापास्रवका कारण है। उससे पूर्वबद्ध कर्म पुद्गलोंके अनुभाग रसमें वृद्धि होती है । अथवा 'वाधिज्जत'का अर्थ खाना या काटना है' उनके काटने पर यदि साधु ग्वुजाता है तो वे जू आदि पीड़ित होते हैं इस दोषके कारण आगममें कहा लोच करते हैं। यह लोच सिर और दाढ़ीके बालोंका हाथकी अंगुलियोंके द्वारा दो, तीन या चार मासमें प्रदक्षिणा के रूपमें अर्थात् दाहिनी ओरसे वायीं ओर किया जाता है ।। ८८ ।।। इस प्रकार लोचके न करने में दोष बतलाकर लोचमें गुणोंका कथन तीन गाथाओं द्वारा करते हैं____ गा०-लोच करने पर सिर मुण्डा हो जाता है । मुण्डताके होने पर निर्विकारता होती है। उससे विकार रहित क्रियाशील होनेसे प्रगृहीततर चेष्टा करता है ।। ८९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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