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________________ भगवती आराधना अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासया हवे जस्स ॥ दुब्भिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो वा ।।७१।। 'अणुलोमा वा' अनुकूला वा शत्रवः । 'चारित्तविणासगा' चारित्रं पापक्रियानिवृत्तिः तस्य विनाशकाः । बंधवो हि स्नेहान्मिथ्यात्वदोषात् स्वपोषणलोभाद्वा यस्य चारित्रं विनाशयितुं उद्यताः । अनुलोमत्वं शत्रुत्वविरोधि प्रातिकूल्ये समवस्थिता हि भवन्ति शत्रवस्तत्किमुच्यते 'अणुलोमा वा सत्त इति ? प्रियवचनमात्रभाषणादनुलोमता । अहितेऽसंयमे प्रवर्तनाद्धितस्य संयमधनस्य विनाशनात् शत्रवो भवन्ति । अथवा अनुलोमा बंधवः सत्त वा शत्रवश्चेति समुच्चयः वा शब्दसमुच्चयार्थत्वात् । 'देविगमाणुसतेरिक्खगा उवसग्गा जस्स' इतिवचनात् अनुकूलशत्रुकृतोऽप्युपसर्गः संगृहीतः एव किमर्थं पुनरुच्यते 'अणुलोमा वा' इति पुनरुक्तता। तत्र हि सूत्रे मनुष्योपसर्गो नाम बंधनताडनविलंबनादिकः शरीरोपद्रवः परकृतो गृहीतः । इह तु जिव्होत्पाटनादिकं कुर्मो यदि श्रामण्यं न त्यजसीति खलीकरणं वक्तुमिष्टम् । 'दुभिक्खे वा' दुर्भिक्षे वा । 'आगाढे' दुरुत्तरे महति अशनिपातमिव सर्वजनगोचरे अर्हति प्रत्याख्यातुं । 'अडवीए' अटव्यां महत्यां व्यालमृगाकुलायां मार्गोपदेशिजनरहितायां दिङ्मूढः पाषाणकंटकबहुलतया दुःप्रचारायां । 'विप्पणछो वा' विप्रनष्टो वा अर्हतीति संबंधः ॥११॥ गा०-अनुकूल बन्धु मित्र शत्रु हो जो चारित्रका विनाश करनेवाले हों। अथवा अनुकूल बन्धु और शत्रु जिसके चारित्रका विनाश करनेवाले हो । भयंकर दुभिक्ष हो अथवा भयंकर जंगलमें भटक गया हो तो भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ॥७१॥ टी०-अनुकूल ही शत्रु हों। पापक्रियासे निवृत्तिरूप चारित्रका विनाश करनेवाले हों। बन्धु स्नेहसे या मिथ्यात्व दोषसे या अपने भरण-पोषणके लोभसे जिसके चारित्रका विनाश करनेके लिए तत्पर हो वह भक्त प्रत्याख्यानके योग्य है । शंका-अनुलोमता शत्रुताकी विरोधी है। जो प्रतिकूल होते हैं वे शत्रु होते हैं तब 'अणुलोमा वा सत्तु' कैसे कहा? ___समाधान-प्रियवचनमात्र बोलनेसे अनुलोमता है और असंयमरूप अहितमें प्रवृत्ति करानेसे तथा संयमधनरूप हितका विनाश करनेसे शत्रु होते हैं। अथवा अनुलोम अर्थात् बन्धु और शत्रु इस प्रकार 'वा' शब्दको समुच्चयार्थक लेना चाहिए। शंका-पहले कहा है कि जिसपर देवकृत मनुष्यकृत उपसर्ग हो, तो इससे अनुकूल कृत और शत्रुकृत उपसर्गका ग्रहणकर ही लिया है यहाँ पुनः 'अणुलोमा वा सत्तु' क्यों कहा? इससे पुनरुक्तता दोषका प्रसंग आता है। ___ समाधान-उक्त गाथामें मनुष्योपसर्गसे परके द्वारा किया गया बाँधना, मारना, रोकना आदि शारीरिक उपद्रव लिया गया है। और यहाँ 'यदि मुनिपद नहीं छोड़ता तो हम तेरी जीभ उखाड़ लेंगे' इस प्रकारकी शत्रुता ली गई है। __ वज्रपातके समान भयंकर दुभिक्ष होनेपर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य है । सर्प, मृग आदिसे भरे हुए भयंकर वनमें, जहाँ कोई रास्ता बतलानेवाला नहीं है, कंकर पत्थरोंके कारण चलना भी दुष्कर है, फंस जानेपर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ।।७१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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