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________________ भगवती आराधना ज्ञानवालः, दर्शनबालः, चारित्रवाल इति । अव्यक्तः शिशः धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति न च तदाचरणसमर्थशरीरः सोऽव्यक्तबालः । लोकवेदसमयव्यवहारान्यो न वेत्ति शिशुर्वासी व्यवहारवालः । मिथ्यादृष्टयः 'सर्वेऽर्थतत्त्वश्रद्धानरहिताः दर्शनबालाः । वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबालाः । अचारित्राः प्राणभृतश्चारित्रबालाः । एतेषां बालानां मरणं बालमरणं । एतानि च अतीते काले अनंतानि । अनंताश्व मृतिमिमां प्रपद्यते । इह दर्शनबालो गहीतः नेतरे बालाः कथं ? यस्मात्सम्यग्दृष्टेरितरवालत्वे सत्यपि दर्शनपंडिततायाः सद्भावात्पंडितमरणमेवेष्यते । दर्शनवालस्य पुनः संक्षेपतो द्विविधं मरणं । इच्छया प्रवृत्तमनिच्छयेति च । तयोराद्यमग्निना धूमेन, शस्त्रेण, विपेण, उदकेन, मरुत्प्रपातेन, उच्छवासनिरोधेन, अतिशीतोष्णपातेन, रज्ज्वा, क्षुधा, तुषा, जिह्वोत्पाटनेन, विरुद्धाहारसेवनया च बाला मृति ढोकन्ते, कुतश्चिन्निमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिणः काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषोः तदद्वितीयम् । एतलिमरणैर्दुर्गतिगामिनो म्रियन्ते विषयव्यासक्तबुद्धयः अज्ञानपटलावगुंठिताः, ऋद्धिरससातगुरुकाः । बहुतीव्रपापकर्मास्रवद्वाराण्येतानि बालमरणानि जातिजरामरणव्यसनापादनक्षमाणि || पंडितमरणमुच्यते-व्यवहारपंडितः, सम्यक्त्वपंडितः, ज्ञानपंडितश्चारित्रपंडितः इति चत्वारो विकल्पाः । लोकवेदसमयव्यवहारनिपुणो व्यवहारपंडितः अथवाऽनेकशास्त्रज्ञः शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वितः व्यवहारपंडितः, है--अव्यक्तबाल, व्यवहारबाल, ज्ञानवाल, दर्शनबाल, चारित्रवाल । अव्यक्त छोटे बच्चेको कहते हैं । जो धर्म, अर्थ और कामको नहीं जानता और न जिसका शरीर ही उनका आचरण करने में समर्थ है वह अव्यक्तबाल है। जो लोक, वेद और समय सम्बन्धी व्यवहारोंको नहीं जानता अथवा इन विषयोंमें शिशु समान है वह व्यवहारबाल है। अर्थ और तत्त्वके श्रद्धानसे रहित सब मिथ्यादष्टि दर्शनबाल हैं। वस्तको यथार्थरूपसे ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे जो हीन हैं वे ज्ञानवाल जो चारित्रपालन किये विना जीते है वे चारित्रबाल हैं। इन बालोंके मरणको बालमरण कहते हैं। अतीतकालमें ये बालमरण अनन्त हो चुके हैं। अनन्तजीव इस मरणको प्राप्त होते हैं। यहाँ इनमेंसे दर्शनबालका ग्रहण किया है, अन्य बालोंका नहीं; क्योंकि सम्यग्दृष्टि में इतर वालपना रहते हुए भी दर्शनपंडितपना रहता है इसलिए उसके पंडितमरण ही स्वीकार किया है। संक्षेपसे दर्शनबालका मरण दो प्रकार का है एक इच्छापूर्वक, दूसरा अनिच्छापूर्वक । आगसे, धुएँसे, शस्त्रसे, विषसे, जलसे, पर्वतसे गिरनेसे, श्वासके रुकनेसे, अति शीत या अति गर्मी पड़नेसे, रस्सीसे, भूखसे, प्याससे, जीभ उखाड़नेसे और प्रकृति विरुद्ध आहारके सेवनसे बालपुरुष मरणको प्राप्त होते हैं यह इच्छापूर्वक मरण हैं अर्थात् ऐसे उपाय स्वयं करके वे मरते हैं। किसी निमित्त वश जीवनको त्यागनेकी इच्छा होने पर भी अन्तरंगमें जीनेकी इच्छा रहते हुए काल या अकालमें अध्यवसान आदिसे जो मरण होता है वह अनिच्छापूर्वक दर्शनबाल मरण है। जो दुर्गतिमें जानेवाले हैं, विषयोंमें अतिआसक्त हैं, अज्ञान पटलसे आच्छादित हैं, ऋद्धि, रस और सुखके लालची हैं वे इन बालमरणोंसे मरण करते हैं। ये बालमरण बहुत तीव्र पापकर्मोके आस्रवके द्वार हैं, जन्म, जरा, मरणके दुःखोंको लानेवाले हैं। पण्डितमरणको कहते हैं-इसके चार भेद हैं, व्यवहार पण्डित, सम्यक्त्व पण्डित, ज्ञानपण्डित और चारित्र पण्डित । जो लोक, वेद और समयके व्यवहारमें निपुण हैं वह व्यवहारपण्डित १. सर्वथा तत्व-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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