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________________ भगवती आराधना पेक्षयाऽवीचिकमनादिनिधनं । भवापेक्षया क्षेत्राद्यपेक्षया च सादिक । चतुर्णामायुष्काणां मध्ये द्वयार्यद्यपि सत्कमंता तथापि एकस्यैवायुष उदयः । द्वयोः प्रकृत्योः सत्कर्मता सह भवति । उच्यते-तिर्यङ्मनुष्यायुष्कयोः सर्वेरायुष्कैः सह सत्कर्मता देवनारकायुष्कयोस्तियङ्मानवायुष्काभ्यां सत्कर्मता । भवतु नामैषां सत्कर्मव्यवस्था । द्वयोरायुष्कप्रकृत्योः किं तद्युगपदुदयः ? अत्रोच्यते-अनुभूयमानप्रकृतिस्थितीनामुपरि इतरस्यायुषो निषेको यतस्ततो न युगपदायुषःप्रकृत्योरुदयः । किं च यस्मादेकस्य जीवस्य द्वयोर्भवयोगत्योर्वा न संभवः । भवं गति च प्रयोज्य अपेक्ष्य आयुष उदयो नान्यथा ततो नायुष्कद्वयोरुदयः । एवमेकस्यायुष्कर्मणः एकैव प्रकृतिरुदेत्येकस्यात्मनस्तस्मादेककायुष्कप्रकृतिगलनरूपामेव मृतिमुपैति । तदेतत्प्रकृतिसरणं कालभेदेन एकस्यापि चतुर्विधं भवति तदा वीचिकमेव । एवं प्रकृत्यावीचिमरणं व्याख्यातम् । द्वितीयं स्थित्यावीचिकमरणं । भवधारणकारणत्वपरिणतानां पुद्गलानां स्नेहादात्मप्रदेशेष्ववस्थितिरित्युच्यते । आत्मनः कषायपरिणामः सहकारी पुद्गलानां स्निग्धतायाः परिणामिकारणं तु तदेव पुद्गलद्रव्यं । सा चैषा स्थितिरेकादिककोतरा देशोनत्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणां यावन्तः समयास्तावद्भेदा उत्कर्ष स्थितिः । अंतर्मुहूर्तभवा परा। तस्या वीचय इव क्रमेणावस्थितायाः विनाशादात्मनो भवति स्थित्यावीचिकमरणं । आयुकर्मोंमेंसे यद्यपि एकजीवके दो ही आयुकर्मोंकी सत्ता रहती है (एक जिसे भोगता है और दूसरी जिसे परभवके लिए बाँधा है)। तथापि उदय एक ही आयुका होता है। दो प्रकृतियाँ सत्तामें एकसाथ रह सकती हैं। वहीं कहते हैं-तिर्यश्चायु और मनुष्यायु सब आयुओंके साथ सत्तामें रहती है अर्थात् देवायु और नरकायु दूसरी देवायु और नरकायुके साथ सत्तामें नहीं रहती; क्योंकि देव मरकर देव या नारकी नहीं हो सकता और न नारकी मरकर नारकी या देव होता है। शङ्का-आयुकर्मो की यह सत्कर्मव्यवस्था रहो, किन्तु दो आयुकर्मो का एकसाथ उदय क्यों नहीं होता ? ___ समाधान-आयुकर्मकी जिस प्रकृतिकी स्थिति अनुभवमें आ रही है और जिस आयुकी स्थितिका उदय हो रहा है उसकी स्थिति जहाँ समाप्त होती है उससे ऊपर दूसरी आयुके निषेक रहते हैं। अतः जबतक पहली आयुकी स्थिति समाप्त नहीं होती तबतक दूसरी उदयमें आ नहीं सकती। इसलिए एकसाथ आयुकी दो प्रकृतियोंका उदय नहीं होता। तथा एक जीवके एकसाथ दो भव या दो गति सम्भव नहीं है। और भव तथा गतिको लेकर उसके अनुसार आयुका उदय होता है, अन्यथा नहीं होता, इसलिए भी दो आयुका उदय एकजीवके नहीं होता। इस प्रकार एक आयुकर्मकी एक ही प्रकृति एकजीवके उदयमें आती है अतः एक-एक आयुकर्मके गलनरूप ही मरण होता है। यह प्रकृतिमरण कालभेदसे एक भी जीवके चार प्रकारका होता है। वह आवीचिकमरण ही है। इस प्रकार प्रकृति आवीचिमरणका व्याख्यान किया। ... दूसरा स्थिति आवीचिकमरण है। भवधारणमें कारणरूपसे परिणत हुए पुद्गलोंके स्नेहवश आत्माके प्रदेशोंमें ठहरनेको स्थिति कहते हैं। आत्माका कषायरूप परिणाम पुद्गलोंकी स्निग्धताका सहकारी होता है। परिणामी कारण तो स्वयं पुद्गलद्रव्य ही है। यह स्थिति एक समयसे लेकर एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते कुछ कम तेतीस सागरोंके जितने समय हैं उतने भेदवालो होती है । यह उत्कृष्ट स्थिति है। जघन्यस्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण होती है। तरंगोंके समान क्रमसे अवस्थित उस स्थितिके विनाशसे आत्माके स्थिति आवीचिकमरण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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