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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 67 देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसमें मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है। इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है। मागधी और देश्य शब्दों का मिश्रण अर्धमागधी कहलाता है-यह चूर्णि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है। इसे आर्ष भी कहा गया है।' ठाणं में संस्कृत और प्राकृत को ऋषिभाषित कहा गया है। षट् प्राभृत टीका के अनुसार जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द अन्य सब भाषाओं के हों, उसे अर्धमागधी कहा जाता है।' श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी अथवा प्राचीन प्राकृत कहा जाता है। वस्तुत: प्राकृत भाषा की सामान्य प्रकृति सदा परिवर्तित होती रहती है। जैसे जैन आगमों की भाषा संस्कृत से भिन्न लोकभाषा प्राकृत कहलाई और जैसे-जैसे लोकभाषा में परिवर्तन हुए, वैसे ही जैन आगमों की भाषा भी परिवर्तित होती गई। जैन धर्म अपने मूल केन्द्र स्थल मगध से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैलता गया, वैसे-वैसे उन-उन क्षेत्रों में प्रचलित भाषा के शब्दों और रूपों का प्राकृत में समावेश होता गया। यद्यपिजैन आगमों की भाषा प्राचीनकाल में अर्धमागधी थी, यह तथ्य स्वयं आगमों से ही समर्थित है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगमसाहित्य में अर्धमागधी के लक्षण यथावत् विद्यमान नहीं है। जैन आगमसाहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी ने बृहत्कल्प की प्रस्तावना में लिखा है कि- "प्राचीनतम विविध प्रतियों को सामने रखने से उनमें भाषा और उसके प्रयोग विषयक विविधता देखने में आती है। नियुक्ति, भाष्य, महाभाष्य, चूर्णि आदि में प्रचुर मात्रा में पाठभेद और पाठविकार दिखाई देते हैं। नियुक्ति और भाष्य परस्पर मिश्रित हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जैन आगमों की मौलिक भाषा अर्धमागधी का अन्वेषण करना कठिन हो गया है। मुनि पुण्यविजयजी ने ही नंदी और अणुओगदाराइं की प्रस्तावना में इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा प्राचीनकाल में अर्धमागधी थी, यह बात स्वयं आगमों के उल्लेख से पता चलती है, पर आज वैयाकरण जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते हैं। यह प्राकृत उस भाषा के नजदीक है, अत: आधुनिक विद्वान् इसे जैन महाराष्ट्री कहते हैं। आगमों में भाषा भेद के स्तर स्पष्ट रूप से विशेषज्ञों को ज्ञात है। उदारहण के लिए आचारांग के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध की भाषा में स्पष्ट रूप से कालभेद दिखाई देता है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग और भगवती सूत्र के भाषा रूपों में 1. निशीथसूत्रम्, गाथा 3618 : मगहाऽद्धविसयभासाणिबद्धं अहवा अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं । 2. प्राकृतव्याकरण 'हेम' (ले. आचार्य हेमचन्द्र, दिल्ली, 1974) 8/1/83 3. ठाणं 7/48/10, सक्तापागताचेव,दुहा भणितीओआहिया।सरमण्डलम्मिगिजते, पसत्था इसिभासिता॥ 4. षट्प्राभूतादिसंग्रह: (संपा. पं. पन्नालाल सोनी, बम्बई, वि.सं. 1977) प.99, सर्वार्धं मागधीया भासा भवति कोर्थ ? अर्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मक, अर्धं च सर्वभाषात्मकम् । 5. बृहत्कल्पभाष्य, 6, प्रस्तावना पृ.57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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