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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 55 भगवान् महावीर ने मुनिधर्म और उपासकधर्म-इस द्विविध धर्म का उपदेश दिया था। मुनि के लिए पांच महाव्रत और उपासक के लिए बारह व्रतों का विधान किया। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में उन बारह व्रतों का विशद वर्णन प्राप्त है। व्रतों की यह सूची धार्मिक या नैतिक जीवन की प्रशस्त आचार-संहिता है। श्रमणोपासक आनन्द भगवान् महावीर के पास इन व्रतों की दीक्षा लेता है। __ मुनि का आचार-धर्म अनेक आगमों में मिलता है, किंतु गृहस्थ का आचार-धर्म मुख्यत: इसी आगम में प्राप्त है। इसलिए आचार-शास्त्र में इसका मुख्य स्थान है। इसकी रचना का मुख्य प्रयोजन गृहस्थ के आचार का वर्णन करना है। प्रसंगवश इसमें नियतिवाद के पक्षविपक्ष की चर्चा हुई है। उपासकों की धार्मिक कसौटी की घटनाएं भी मिलती हैं। जयधवला के अनुसार प्रस्तुत आगम में उपासकों के दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रकार के धर्म का वर्णन है। आनन्द आदि श्रावकों ने उक्त ग्यारह प्रतिमाओं का आचरण किया था। व्रत और प्रतिमा- ये दो पद्धतियां हैं। समवायांग और नंदीसूत्र में व्रत और प्रतिमा दोनों का उल्लेख मिलता है। जयधवला में केवल प्रतिमाओं का उल्लेख है।' अंतकृतदशा अंतकृतदशा द्वादशांगी का आठवां अंग है। इसका संस्कृत रूप अंतकृतदशा अथवा अंतकृत्दशा है। इस आगम में संसार का अन्त अर्थात् भव-भ्रमण को समाप्त करने वाले व्यक्तियों के जीवन का निरूपण है तथा इसके दस अध्ययन है, अतः इसे अन्तकृतदशा कहा गया है। समवायांग में इसके दस अध्ययन एवं सात वर्गों का उल्लेख है। नंदी में इसके आठ वर्गों का उल्लेख है। नंदीचूर्णि ने प्रथम वर्ग में दस अध्ययन एवं सात वर्ग बताए हैं तथा दस की संख्या के आधार पर इसे अन्तकृतदशा कहा है। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृतदशा में समवाओ उल्लिखित दस अध्ययन एवंसात वर्ग उपलब्ध नहीं है। नन्दी वर्णित आठ वर्गात्मक ही उसका वर्तमान स्वरूप है। अन्तकृतदशा में आगत दशशब्द संख्या के अतिरिक्त अवस्था अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है।' तत्त्वार्थवार्तिक के वर्णन के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर के समय होने वाले दस-दस अंतकृत केवलियों का वर्णन इस आगम में है। जयधवला में भी यह तथ्य प्रतिपादित है।' 1. अंगसुत्ताणि (3) भूमिका पृ. 23 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 9 6 : दस अज्झयणा सत्तवग्गा। 3. नंदी, सूत्र 88.........अट्ठवग्गा। 4. (क) नंदी, सूत्र, चूर्णि सहित, पृ. 68 : पढमवग्गे दस अज्झयणा सत्त वग्गा तस्सक्खत्तो अंतकडदस त्ति। (ख) नंदी, सूत्र, वृत्ति सहित, पृ. 8 3 : प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि इति तत्संख्यया अन्तकृद्दशा इति। 5. नंदी सूत्र, चूर्णिसहित, पृ. 68 : दस त्ति-अवत्था । 6. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20 1. कसायपाहुड, भाग 1, पृ. 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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