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________________ आत्ममीमांसा 157 असमर्थ होते हुए भी उसका अनुभव करता ही है। उसी प्रकार वेदना को प्रकट करने में अक्षम होते हुए भी पृथ्वीकायिक जीव उसका अनुभव अवश्य ही करते हैं।' जैसे किसी इन्द्रिय-सम्पन्नव्यक्त चेतना वाले पुरुष के पैर, टखने,जंघा, घुटने, पिंडली, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होंठ, दांत, जीभ, तालु, गला, कपोल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट और सिर-इन बत्तीस अवयवों का एक साथ भेदन-छेदन करने पर उसे जैसी वेदना होती है उसको वह व्यक्त नहीं कर पाता है वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को भी वेदना का अव्यक्त अनुभव होता है। जैसे कोई पुरुष किसी व्यक्ति को मूर्छित करता है और किसी का प्राणवध करता है। वह मूर्च्छित पुरुष तथा वह मरने वाला व्यक्ति जैसे अव्यक्त वेदना का अनुभव करता है, वैसे ही स्त्यानर्धिनिद्रा के उदय से अव्यक्त चेतना वाले पृथ्वीकायिकजीव अव्यक्त वेदना का अनुभव करते हैं।' भगवती में भी पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना दृष्टांत से स्पष्ट की गई है। गौतम के प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर कहते हैं-जैसे कोई हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला तरुण पुरुष किसी जराजर्जरित पुरुष के सिर को दोनों हाथों से आहत करता है, उस समय उस वृद्ध को कितनी घोर वेदना होती है। उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होने पर उस वृद्ध पुरुष से भी अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करते हैं।' भगवान् महावीर के शासन में दीक्षित मुनि पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से विरत होता है, क्योंकि उसमें उनजीवों की सजीवता और उनको होने वाली वेदना का स्पष्ट अवबोध है। जैन मुनि न तो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, न करवाता है और न ही उनकी हिंसा का अनुमोदना करता है। वह उनकी हिंसा से सर्वथा विरत रहता है। वह संसार के सभी छोटे-बड़े जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है। सब जीवों के प्रति आत्मतुला का बोध उसे हिंसा से विरत रखता है। अप्काय पानी के जीवों को अप्काय कहा जाता है। जिनजीवों का पानी ही शरीर है वे अप्कायिक जीव कहलाते हैं । अप्कायिक जीव भी सूक्ष्म हैं। इन्द्रिय-स्तर पर जीने वाले उनके जीवत्व का 1. आयारो, 1/28 2. वही, 1/29 3. वही, 1/30 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 19/35 5. दसवेआलिया, 6/26. पुढविकायं न हिंसति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया॥ 6. वही, 10 15, अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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