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________________ 154 जैन आगम में दर्शन प्राचीन जैन साहित्य में षड़जीवनिकाय के जीवों से सम्बन्धी विचार बहुत विस्तार से हुआ। वर्तमान में आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने आचारांगभाष्य में बहुत विशदता एवं गम्भीरता से इस विषय पर विमर्श किया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इस विषय के ग्रहण की अनिवार्यता थी। अतः प्रस्तुत प्रसंग में आचारांगभाष्य में प्रदत्त विचारों का उसकी भाषा सहित संग्रहण किया है तथा पाठक की सुविधा के लिए उद्धरण प्राचीन ग्रन्थों के जो भाष्य अथवा अन्यत्र उपलब्ध थे वे दिए हैं। पृथ्वीकाय की अवगाहना पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना बहुत सूक्ष्म होती है । भगवती में इनकी अवगाहना को बहुत ही रोचक ढंग से उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। चातुरन्त चक्रवर्ती की स्थिर हस्ताग्र (हथेली तथा अंगुलियां) वाली तथा शारीरिक शक्ति सम्पन्न कोई एक युवती दासी तीक्ष्ण वज्रमयी चिकनी खरल में तीक्ष्ण वर्तक (बट्टे) से पृथ्वीकाय के टुकड़े को इक्कीस बार पीसती है। तब भी कुछ पृथ्वीकायिक जीव संघटित होते हैं और कुछ नहीं, कुछ परितापित होते हैं और कुछ नहीं, कुछ भयभीत होते हैं और कुछ नहीं, कुछ स्पृष्ट होते हैं और कुछ नहीं । पृथ्वीकायिक जीवों की इतनी सूक्ष्म अवगाहना होती है। पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना सूक्ष्म होती है, इसलिए एक-दो जीवों के शरीर दीखते नहीं हैं किंतु उन असंख्य जीवों के पिण्डीभूत शरीरों को ही हम देख सकते हैं।' पृथ्वीकाय के असंख्य जीवों का पिण्डीभूत शरीर ही हमारी इन्द्रियों का विषय बन सकता है। पृथ्वीकाय में आश्रव ___ पृथ्वीकायिक जीव कभी महाआश्रव वाले, महाक्रिया वाले, महावेदना वाले और महानिर्जरा वाले होते हैं तथा कभी अल्पआश्रव वाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदना वाले और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं।' पृथ्वीकायिक जीवों के मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। उनकी चेतना अविकसित होती है फिर भी अध्यवसाय के आधार पर उनमें कर्मबंध आदि की तरतमता होती रहती है। 1. अंगसुत्ताणि (भगवई) 19/34 2. आचारांग नियुक्ति, गा. 82, इक्कस दुण्ह तिण्ह व संखिज्जाण व न पासिउं सका। दीसंति सरीराइं पढविजीवाणं असंखाणं ।। 3. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 19/55-56, सिय भंते ! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता सिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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