SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयमाधिकार ८ समिति-मूत्र (दातार पर किसी प्रकार का भार न पड़े इस उद्देश्य से) साधु जन निम्न प्रकार के आहार अथवा वसतिका आदि का ग्रहण नहीं करते हैं जो गृहस्थ ने साधु के उद्देश्य से तैयार किये हों, अथवा उसके उद्देश्य से ही मोल या उधार लिये गये हों, अथवा निर्दोष आहारादि में कुछ भाग उपरोक्त दोष युक्त मिला दिया गया हो, अथवा साधु के निमित्त उसके समक्ष लेकर खड़ा हो, अथवा अपने लिए बनाये गये में इस उद्देश्य से कुछ और अधिक मिला दिया गया हो कि साधु आयगे तो उन्हें भी देना पड़ेगा, अथवा स्वयं व साधु दोनों को लक्ष्य में रखकर बनाया हो, इत्यादि । यही साधु की एषणा समिति कहलाती है। [साघु-जन शरीर के लिए नहीं, बल्कि संयम-रक्षा के लिए भोजन करते हैं। भ्रमर की भांति वे इस प्रकार भिक्षा-चर्या करते हैं कि किसी पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। तथा भिक्षा में रूखा-सूखा सरस या नीरस, ठण्डा या गर्म जैसा भी मिल जाये, उसीमें सन्तुष्ट रहते हैं।'] १९६. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइये निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया ॥ उत्तरा०।२४.१४ तु०= मू० आ० । १४ (१.१६) चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेत् यतो यतिः । आददाति निक्षिपेद् वा, द्विधाऽपि समितः सदा ॥ साधु के पास अन्य तो कोई परिग्रह होता ही नहीं। संयम व शौच के उपकरणभूत रजोहरण, कमण्डलु, पुस्तक आदि मात्र होते हैं। उन्हें उठाते-धरते समय वह स्थान को भली प्रकार झाड़ लेता है, ताकि उनके नीचे दबकर कोई क्षुद्र जीव मर न जाय। उसकी यह यतना ही आदान निक्षेपण समिति कहलाती है। १९७. एगते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चाओ, पदिठावणिया हवे समिदी॥ मू० आ०।१५ (१.१७) तु०- उत्तरा०।२४.१८ संयमाधिकार ८ गुप्ति -सूत्र एकान्ते अचित्ते दूरे गूढे विशाले अविरोधे । उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठापनिका भवेत्समितिः॥ [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से ] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना न करता हो । इस प्रकार की यतना ही उसकी प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है। ११. गुप्ति (आत्म-गोपन)-सूत्र १९८. जा रायादिणियत्ती, मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्ती वा, मोणं वा होदि वचिगुत्ती॥ भू० आ० । ३३२ (५.१५४) तु०-उत्तरा० । २४.२०-२३ या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहिं तां मनोगुप्ति । अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वचोगुप्तिः॥ मन का राग-द्वेष से निवृत्त होकर (समताभाव में स्थित हो जाना) मनोगुप्ति है। असत्य व अनिष्टकारी वचनों की निवृत्ति अथवा मौन' वचन-गुप्ति है। १९९. कायकिरियाणियत्ती, काओसग्गे सरीरगुत्ती। हिंसादिणियत्ती वा, सरीरगुत्ती हवदि एसा ॥ मू० आ० । ३३३ (५.१५५) तु० = उत्तरा० । २४.२४-२५ कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः। हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवति एषा॥ समस्त कायिकी क्रियाओं को निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग निश्चय काय-गुप्ति है और हिंसा-असत्य आदि पाप-क्रियाओं को निवृत्ति व्यवहार काय-गुप्ति है। १. दे. गा०२५२-२५३ Jain Education International १. मीन के लिए दे०मा० २००-२०१ For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy