SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८६ ) महाभारत में भी यहच्छावाद का उल्लेख' है। न्यायसूत्रकार ने इसी वाद का उल्लेख यह लिख कर किया है कि अनिमित्त-निमित्त के बिना ही कांटे की तक्ष्णता के समान भावों की उत्पत्ति होती है। उन्होंने इस वाद का निराकरण भी किया है। अतः अनिमित्तवाद, अकस्मात्वाद और यदृच्छावाद एक ही अर्थ के द्योतक हैं। कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं किंतु यह मान्यता ठीक नहीं। इन दोनों में यह भेद है कि स्वभाववादी स्वभाव को कारणरूप मानते हैं, किंतु यहच्छावादी कारण की सत्ता से ही इनकार करते हैं। नियतिवाद __इस वाद का सर्व प्रथम उल्लेख भी श्वेताश्वतर में है। किंतु वहाँ अथवा अन्य उपनिषदों में इस वाद का विशेष विवरण नहीं मिलता। जैनागम और बौद्ध त्रिपिटक में नियतिवाद संबंधी बहुत सी बातें उपलब्ध होती हैं। जब भगवान् बुद्ध ने उपदेश देना प्रारंभ किया तब नियतिवादी जगह जगह अपने मत का प्रचार कर रहे थे। भगवान महावीर को भी नियतिवादियों से वादविवाद करना पड़ा था। उन की मान्यता थी कि आत्मा और परलोक का अस्तित्व है, परंतु संसार में दृष्टिगोचर होने वाली जीवों की विचित्रता का कोई भी अन्य कारण नहीं है, सब कुछ एक निश्चित प्रकार से नियत है और नियत रहेगा। सभी जीव नियति चक्र में फंसे हुए हैं। जीव में यह शक्ति नहीं कि इस चक्र में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कर सके। यह नियति चक्र १ महा० शाति पर्व ३३. २३ । २ न्यायसूत्र ४. १. २२ । । पं० फणिभूषणकृत न्यायभाष्य का अनुवाद ४. १. २४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy