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________________ ( २६ ) उसका स्वरूप क्या है, ये प्रश्न उठे। वास्तविक आत्मविद्या का श्रीगणेश इसी समय हुआ, और लोगों को इस विद्या का ऐसा व्यसन लगा कि उन्होंने आत्मा की शोध में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझी। उन्हें आत्म-सुख की अपेक्षा इस संसार के भोग अथवा स्वर्ग के सुख तुच्छ प्रतीत हुए और उन्होंने त्याग एवं तपश्चर्या की कठिन यातनाओं को सहर्ष सहन किया । नचिकेता' जैसे बालक भी मृत्यु के उपरांत आत्मा की दशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इतने उत्सुक हो गए कि उन्हें ऐहिक अथवा स्वर्ग के सुखसाधन हेय दिखाई दिए। मैत्रेयी जैसी महिलाएं अपने पति की संपत्ति का उत्तराधिकार लेने की अपेक्षा आत्म-विद्या की शोध में तल्लीन हो गई और पति देव से कहने लगी कि जिसे पाकर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूँ ? अतः भगवन् ! यदि आप अमर होने का उपाय जानते हैं तो मुझे बताइए। कुछ लोग तो पुकार पुकार कर कहने लगे कि जिसमें धुलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी तथा सर्व प्राणों सहित मन ओतप्रोत है, ऐसे एक मात्र आत्मा का ही ज्ञान प्राप्त करो, शेष सब झंझट छोड़ दो। अमरता प्राप्त करने के लिए यह आत्मा सेतु के समान है। याज्ञवल्क्य तो सब से आगे बढ़ कर घोषणा करता है कि पति, पत्नी, पुत्र, धन, पशु ये सब चीजें आत्मा के निमित्त ही प्रिय मालूम होती हैं। अतः इस आत्मा को ही देखना चाहिए, उसके विषय में ही सुनना चाहिए, विचार करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए, ऐसा करने से सब कुछ ज्ञात हो जाएगा। १ कठो० १. १. २३-२९, २ बृहदा० २.४.३, 3 मुंडक २-२-५, ४ बृहदा० ४-५-६, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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