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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग १ उसकी चारों ओर की मूर्तियाँ महावीर की ही होंगी। किन्तु कंकाली-टीला की प्रायः सभी चतुर्मुख मूर्तियों में प्रत्येक दिशा की सम्मुख मूर्ति पृथक्-पृथक् तीर्थंकर की है। उन तीर्थंकरों में से कम-से-कम दो की पहचान हो सकती है-एक ऋषभनाथ जिनके कंधों पर लहराती केश-राशि का अंकन होता है और दूसरे पार्श्वनाथ जिनके मस्तक पर नाग-फणावलि का वितान होता है। तीसरे महावीर होने चाहिए क्योंकि वे अंतिम तीर्थंकर थे, और चौथे नेमिनाथ हो सकते हैं। यह अनुमान इसलिए किया गया है क्योंकि कल्पसूत्र में जो शेष बीस तीर्थंकरों के चरित्र लिखे हैं वे एक ही शैली में हैं और एकदूसरे से अधिकतर मिलते-जुलते हैं। इस कारण से, यह संभव है कि पादपीठों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में जिन्हें प्रतिमा-सर्वतोभद्रिका कहा गया है ऐसी ये मथुरा की चतुर्मुख मूर्तियाँ समवसरण की गंधकुटी (जिसमें विराजमान होकर तीर्थंकर उपदेश देते हैं) की अवधारणा पर आधारित न होकर वृक्षों के नीचे बने यक्ष-चैत्यों के अनुकरण पर बनायी जाने लगी हो। जैन आगमों में आये सिद्धायतनों के समूचे वर्णनों (वर्णक से ज्ञात होता है कि ऐसे मंदिर में तीन द्वार होते थे। प्रत्येक द्वार के सम्मुख एक-एक मुख-मण्डप होता था जो अष्ट-मंगल प्रतीकों से अलंकृत होता था। उनके सम्मुख प्रेक्षागृह-मण्डप या सभागार होते थे। उनके सामने एक-एक चैत्य-स्तूप मणि-पीठिका पर बना होता था। प्रत्येक स्तूप के चारों ओर एक-एक मणि-पीठिका या चबूतरा होता था जिसपर स्तूप की ओर अभिमुख तीर्थंकर-मूर्तियां स्थापित होती थीं। इससे चतुर्मख तीर्थंकर-मूर्ति की अवधारणा पर प्रकाश पड़ता है। जिनसेन के आदिपुराण में मान-स्तंभ नामक एक विशेष प्रकार के स्तंभों का वर्णन है जो समवसरण के प्रथम क्षेत्र में स्थित होते हैं। इन स्तंभों के मूल में चारों ओर एक-एक स्वर्णमय तीर्थकर-मूर्ति स्थापित होती है। इन स्तंभों का वर्णन तिलोय-पण्णत्ती' में भी है जिसमें लिखा है कि जिन-मूर्ति स्तंभ के शीर्ष पर स्थापित होती थी। गुप्तकालीन अभिलेख से अंकित कहाऊं-स्तंभ के शीर्ष पर चारों ओर एक-एक और मूल में एक तीर्थंकर-मूति प्रस्तुत की गयी है। ये मूर्तियाँ सामान्यतः चारों ओर से अनावृत शीर्ष-स्थित मण्डप में प्रस्तुत की गयी हैं। यह पद्धति दिगंबरों में आज भी वर्तमान है । देवगढ़ में कुछ स्तंभ ऐसे हैं जिनमें मान-स्तंभ की इस प्राचीनतर परंपरा के विविध रूप मिलते हैं। कहीं-कहीं शीर्ष पर तीर्थंकर-मूर्तियों के अतिरिक्त मूल में अनुचर देवताओं, यक्षियों, 1 चैत्य के विकास के लिए द्रष्टव्य : शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ. 43 तथा परवर्ती; विशेष रूप से पृ 56-57, 94-95. 2 जीवाजीवाभिगमसूत्र 3. 2, 137 तथा परवर्ती. भगवतीसूत्र, 20, 9, सूत्र 684-794 भी द्रष्टव्य. 3 जिनसेन का प्रावि पुराण, 22,92-102, पृ 515-16. 4 तिलोय-पण्णत्ती, 4,779 तथा परवर्ती. यह शोध उपयोगी होगी कि कंकाली-टीला की चतुमुंख मूर्तियों में से कोई किसी मान-स्तंभ के शीर्ष या मूल का भाग तो नहीं थी. 5 फ्लीट (जे एफ़). ईस्क्रिप्शंस प्रॉफ़ दि अली गुप्त किंग्स, कॉर्पस इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, 3, 1888. कलकत्ता. पृ66-68. 498 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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