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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ [ भाग १ गृहस्थ अपना हित चाहता हो।' धातु से ढली हुई या चीनी मिट्टी से बनी हुई मूर्तियाँ टूटने-फूटने पर जोड़कर रखी जा सकती हैं और उनकी पूजा की जाती रह सकती है, किन्तु काष्ठ या पाषाण की मूर्ति को टूटने-फूटने पर जोड़कर पूजा के लिए नहीं रखा जाना चाहिए। किन्तु यदि वे एक सौ वर्ष से अधिक प्राचीन हों या उनकी प्रतिष्ठा किसी महान व्यक्ति ने करायी हो तो उनकी पूजा की जाती रह सकती है, चाहे वे खण्डित ही क्यों न हों, पर उन्हें सार्वजनिक मंदिरों में ही स्थापित करना चाहिए, गृह-चैत्यों में नहीं 12 यद्यपि तीर्थंकरों के मंदिरों के उल्लेख जैन आगमों में अत्यंत कम हुए हैं और उनकी वास्तविकता पर जब-तब प्रश्न-चिह्न लगते रहे हैं, इतना ही नहीं, आगम-ग्रंथों में किसी भी तीर्थंकर की एक भी मूर्ति के इस भूमण्डल में होने का उल्लेख नहीं है, तथापि शाश्वत तीर्थंकर-प्रतिमाओं के अनेक विवरणों से जैन मूर्ति की पर्याप्त प्राचीन मान्यता का परिज्ञान होता है। दोनों संप्रदायों में सिद्धायतनों (सिद्धों के मंदिर जिन्हें शाश्वत चैत्य भी कहते हैं) की मान्यता है जिनमें शाश्वत 'जिन' अर्थात् तीर्थंकर-मूर्तियाँ विराजमान होती हैं । ये मूर्तियाँ चार तीर्थंकरों अर्थात् चंद्रानन, वारिषेण, ऋषभ और वर्धमान की होती हैं। ये तीर्थंकर शाश्वत जिन कहलाते हैं क्योंकि प्रत्येक उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल में ये चारों नाम अवश्य ही किन्हीं तीर्थंकरों के होते हैं। कई आगमों में यह भी लिखा है कि विभिन्न स्वर्ग-विमानों और पर्वत-शिखरों पर सिद्धायतन या शाश्वत-जिन प्रतिमाएं होती हैं। आगे लिखा है कि अत्यंत मनोरम सिद्धायतन के मध्य में विशाल मणिपीठक पर एक देवच्छंदक की रचना होती है। इस देवालय में एक सौ आठ तीर्थंकर-मूर्तियाँ स्थापित होती हैं । काव्यमय भाषा में यह भी लिखा है कि उन मूर्तियों के विभिन्न अंगोपांग कैसे होते हैं। फिर बताया गया कि इन जिन-मूर्तियों के पीछे आकर्षक ढंग से छत्र धारण किये और पुष्पहार तथा कोरण्ट (कटसरैया) के फूलों की मालाएँ लिये खड़े सेवक होते हैं ; पुष्प रजत, चंद्रमा आदि की भाँति अत्यंत धवल और उज्ज्वल होते हैं। तीर्थंकर-मूर्ति की दोनों ओर दो-दो चमरधारी होते हैं ; तीर्थंकर-मूर्ति के सामने भगवान् के चरणों में नतमस्तक प्रणाम करते नाग-युगल (दोनों ओर एक-एक) यक्ष-युगल, भूत और कुण्डधर (कलशधारियों का) युगल होता है। भगवान की मूर्तियों के समक्ष घण्टियाँ, चंदन-कलश (जो या तो मंगल-कलश रहे होंगे या चंदन-द्रव से आपूरित घट रहे हो सकते 1 प्राचार-दिनकर, 2.1 142.. 2 पूर्वोक्त, पृ 142, श्लोक 4-7, तथा सदोष मूर्तियों के विभिन्न दुष्फलों के विवरण के लिए श्लोक 13.27. 3 स्थानांगसूत्र, 4, सूत्र 307./प्रवचन-सारोद्धार, 491, पृ 117/एक बहुत प्राचीन नामावली जीवाजीवाभिगम-सूत्र, सूत्र 137, पृ 235 पर भी है। दिगंबर परंपरा के अनुसार विभिन्न स्थानों के सिद्धायतनों के लिए देखिए जिनसेन का हरिवंशपुराण, पर्व 5-6, पृ. 70-140. 4 पंद्रह कर्मभूमियों में से किसी में भी. . 5 जैन लोकविद्या के अनुसार जो नंदीश्वर-द्वीप है उसमें ऐसे बावन शाश्वत जिनालय हैं । सिद्धायतनों के लिए देखिए जीवाजीवाभिगम-सूत्र, सूत्र 139. पृ 232-33. 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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