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________________ अध्याय 29 ] दक्षिणापथ पर उपलब्ध होता है । ये कांस्य तथा अन्य द्रव्यों की भी हैं। शिला खण्डों पर भी मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं । श्रासीन मूर्तियाँ या तो पद्मासन में हैं या अर्ध - पर्यकासन में और खड़ी मूर्तियाँ कायोत्सर्ग - मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियों के अतिरिक्त शासन-यक्षों और शासन-यक्षियों की मूर्तियाँ भी हैं जिनके अंकन में विभिन्न शैलियों और युगों के लक्षण विद्यमान हैं । वस्तुस्थिति यह है कि शैलीगत विशेषता तीर्थंकरों की भी मूर्तियों में देखी जा सकती है । मूर्तियों के विषय में लिखा तो गया गुलबर्गा जिले में स्थित राष्ट्रकूटों दक्षिणापथ के अनेक स्थानों की इस काल में निर्मित जैन है पर उनके चित्र बहुत कम प्रकाशित हुए हैं। उदाहरण के लिए, की राजधानी मालखेड में, जो बारहवीं या तेरहवीं शती की एक जैन बस्ती है, संगृहीत उत्तरकालीन जैन मूर्तियाँ हैं । गुलबर्गा जिले के ही सेडम की अनेक जैन बस्तियों में उनकी समकालीन और वैसी ही जैन मूर्तियाँ होने की सूचना प्राप्त है । हम्पी में भी कुछ जैन मूर्तियाँ हैं । इसी तरह श्रवणबेलगोला, मूडबिद्री आदि की मूर्तियाँ भी हैं। वेणूर की एक जैन धर्मशाला में उच्चकोटि की अनेक जैन धातु - मूर्तियां संगृहीत हैं । एपिग्राफिका कर्नाटिका और १६५६ ई० तक की मैसूर आर्क्यॉलॉजिकल रिपोर्टस में प्रकाशित अनेक अभिलेखों में वृत्तांत है कि विभिन्न स्थानों की जैन बस्तियों में भक्तों ने जैन मूर्तियाँ स्थापित करायीं । इस प्रकार की अनेक प्राचीन जैन मूर्तियाँ हम्पी के ठीक सामने तुंगभद्रा के उत्तरी तट पर स्थित गोगोण्डी में एक चट्टान पर उत्कीर्ण हैं । यद्यपि उन्हें 'अमनोज्ञ 1 कहा गया है पर वे लगभग चौदहवीं शती की कला के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करती हैं । खड़ी मूर्तियाँ कायोत्सर्ग - मुद्रा में हैं, उनके मस्तक पर मुक्कुडे ( तीन छत्र) की संयोजना है और उनका आनुपातिक शिल्पांकन सुंदर बन पड़ा है। एक समूह का शिल्पांकन दूसरे समूह के शिल्पांकन से स्पष्टतः भिन्न है, और ठीक बायें उत्कीर्ण एक मूर्ति तो कला का एक सुंदर निदर्शन बन पड़ी है। 2 उसकी मुख-मुद्रा से प्रांतरिक शांति की अभिव्यक्ति होती है, स्कंध सुपुष्ट हैं, भुजाएँ कुशलतापूर्वक अंकित की गयी हैं और कटि से नीचे का भाग बरबस आकृष्ट करता है। अनुचरों की मूर्तियाँ श्रासीन मुद्रा में हैं और वे शरीर की सानुपातिक संयोजना तथा हाथों और मुख मण्डल की प्रभावक मुद्रा से ध्यान आकृष्ट करती हैं । पश्चिमी समुद्र-तट के क्षेत्रों की जो मूर्तियाँ परिचय में आयी हैं उनमें हदुवल्ली (संगीतपुर) और भटकल की उल्लेखनीय हैं । हदुवल्ली की मूर्तियों में एक तीर्थंकर की धातु- मूर्ति है जिसपर चौदहवीं शती का अभिलेख है । यह मूर्ति तीर्थंकर ऋषभ की मानी जाती है क्योंकि उसके पादपीठ पर अंकित आकृतियों में एक गोमुख की भी है । यद्यपि इस पर जो सिंह अंकित है वह सामान्यतः 1 क्लाज़ फ़िशर, ट्रैजेक्शन्स श्रॉफ़ दि म्रार्क यॉलॉजिकल सोसायटी श्रॉफ इण्डिया, 1, 1955. पू 57. 2 वही, रेखाचित्र 15. 3 पंचमुखी (आर एस ). एनुअल रिपोर्ट प्रॉन कन्नड रिसर्च इन बॉम्बे प्राविस फ़ॉर 1939-40, पृ 91 तथा परवर्ती, हदुवल्ली की घातु धोर पाषाण मूर्तियों के संदर्भ में. Jain Education International 381 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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