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________________ अध्याय 28 ] पश्चिम भारत पीछे कार्य करनेवाला मस्तिष्क यदा-कदा ही उत्प्रेरणा ग्रहण कर सका है। इस प्रकार, मध्यकालीन जैन प्रतिमाएँ अपने पूर्ववर्ती शास्त्रीय काल के उत्तरवर्ती मूर्तिकारों द्वारा छोड़ी गयी परंपरा का पालन करनेवाली सर्वोत्तम उत्तराधिकारिणी के रूप में हमारे सामने आती हैं। यदि हम पश्चिम भारत के समसामयिक लघचित्रों के शिल्पियों का उल्लेख करें तो हम पायेंगे कि उन्होंने भी मानव-प्राकृति को जैसा होना चाहिए वैसा ही चित्रित करने में अपनी अभिरुचि प्रदर्शित नहीं की । इन लघुचित्रों में अंकित मानव-आकृतियाँ अपने आकार और ऐंद्रिक सौंदर्य खो चुकी हैं। मानवाकृतियाँ विशद्ध चमकदार रंगों और 'ज़रखेज़' रेखाओं में मात्र एक सपाट अभिकल्पना की भाँति अंकित हैं। इस काल की प्रतिमाओं ने अपने सुघड़ आकार को बनाये रखा है क्योंकि यह मूर्ति-रूपायन का एक अनिवार्य पक्ष है लेकिन इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसके विषयगत या विषयगत तत्त्व को, जैसे मखाकृति पर सार्थक भावों की अभिव्यक्ति को, प्रायः पूर्णतः नकार दिया गया है। मूर्तिकारों ने समकालीन चित्रकारों का अनुकरण कर पत्र-पुष्पों तथा ज्यामितीय आलंकारिक अभिकल्पनाओं के प्रति एक गहरी अभिरुचि प्रदर्शित की है और उन्होंने इन आलंकारिक अभिकल्पनाओं का प्रयोग पाषाण या धातु-निर्मित प्रतिमाओं में किया है। अलंकरण की इस भावना ने समूचे पश्चिम भारत के मंदिरों की भित्तियों, छतों एवं स्तंभों पर उत्कीर्ण लहरदार पत्रावलियों तथा पत्र-पुष्पों की अभिकल्पनाओं में स्थान पाया है । इन अभिकल्पनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण से ज्ञात होता है कि इनके अंकन में शिल्पी के हाथ और मस्तिष्क दोनों ही प्रायः सदैव समान-रूप से सजग रहे हैं। आलंकारिक रूपाकारों के प्रति उनकी सृजनात्मक अभिरुचि इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि उन्होंने इन अलंकरणों में अरब-देशज अभिकल्पनाओं का भी समावेश किया है, जिन्हें उदाहरण के रूप में रणकपुर के चौमुख-मंदिर के कुछ स्तंभों में देखा जा सकता है। इस काल में बहुविविधिता पर जो बल दिया गया हैं वह प्रतिमाओं में भी पाया जाता है। मध्यकालीन जैन प्रतिमा-कला का विशिष्ट योगदान उन उच्च रूप से विकसित परंपराबद्ध शिल्पप्रतीकों में निहित है जो अपना धार्मिक महत्त्व रखते हैं। रणकपुर के पाषाण निर्मित शत्रुजय-गिरनार पट्ट (चित्र २४४), नंदीश्वर-द्वीप-पट्ट (चित्र २४५), सहस्र-फण-पार्श्वनाथ, तथा पाटन' से प्राप्त कांस्य-निर्मित सहस्रकूट, कोल्हापुर से प्राप्त नंदीश्वर और सूरत से प्राप्त पंच-मेरु--ये कुछ ऐसे उल्लेखनीय शिल्प-प्रतीक हैं जिनके निर्माण के पीछे शिल्पियों के लिए एक ही आकार की बहुविविधिता मुख्य प्रेरक शक्ति रही प्रतीत होती है । मध्यकालीन पश्चिम भारत की जैन कला और स्थापत्य के इस सर्वेक्षण से एक ही समरूप तथ्य उद्घाटित होता है और वह है रूपाकारों को बहुविविधिता के साथ पुनःप्रस्तुतीकरण की प्रबल भावना । अशोक कुमार भट्टाचार्य 1 शाह, वही, पृष्ठ 64. 2 वही, चित्र, 63. 3 बही, चित्र 78. 369 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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