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________________ 96 : प्राकृत व्याकरण तस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तो' और 'तम्हा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत-शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६७ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो=ओ' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तो' सिद्ध हो जाता है। 'तम्हा' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६६ में की गई है। ३-६७।। किमो डिणो-डीसौ॥ ३-६८॥ किमः परस्य उसेडिणो डीस इत्यादेशौ वा भवतः।। किणो। कीस। कम्हा।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम “किम्' के रूपान्तर 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणो और डीस प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डिणो और डीस' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक हैं; तदनुसार प्राकृत अंग-प्राप्त रूप 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस'अ'का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात शेषांग हलन्त 'क' में आदेश प्राप्त प्रत्यय 'इणो और ईस' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से संयोजना होती है। जैसे:- कस्मात् किणो और कीस। वैकल्पिक पक्ष होने से (कस्मात्=) कम्हा रूप का भी सद्भाव जानना चाहिये। ___ कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किणो, कीस और कम्हा होते हैं। इनमें से प्रथम के दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६८ से प्राप्तांग 'क' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्'के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'डिणो-इणो' और 'डीस-ईस' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से और वैकल्पिक रूप से प्रथम दोनों रूप किणो और कीस सिद्ध हो जाते हैं। कम्हा की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६६ में की गई है।।३-६८।। इदमेतत्कि-यत्तद्भ्य ष्टो डिणा।।३-६९।। __ एभ्यः सर्वादिभ्योऽकारान्तेभ्यः परस्याष्टायाः स्थाने डित् इणा इत्यादेशो वा भवति।। इमिणा। इमेण।। एदिणा। एदेण। किणा। केण।। जिणा। जेण। तिणा। तेण॥ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'इदम् एतद्' किम्, यद् और तद् के क्रम से प्राप्त प्राकृत अकारान्त रूप ‘इम, एद (शौरसेनी रूप),क, ज, और त' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डिणा' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार प्राकृत प्राप्तांग 'इम, एद, क, ज और त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्सज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् क्रम से प्राप्तांग हलन्त शब्द 'इम्, एद्' क, ज, और त' में उपर्युक्त 'डिणा-इणा' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से संयोजना हुआ करती है। उपर्युक्त सर्वनामों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- अनेक-इमिणा और पक्षान्तर में इमेण; एतेन-एदिणा और पक्षान्तर में एदेण; केन-किणा और पक्षान्तर में केण; येन जिणा और पक्षान्तर में जेण; तेन तिणा और पक्षान्तर में तेण रूप होते हैं। अनेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इनके प्राकृत रूप इमिणा और इमेण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' आदेश की प्राप्ति; और ३-६९ से प्रथम रूप में प्राप्तांग 'इम' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा-इणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमिणा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप इमेण में उपर्युक्त ३-७२ के अनुसार प्राप्तांग ‘इम' में सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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