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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 259 'वन्द्रम्' शब्द के सम्बन्ध में यदि अन्य प्रश्न भी किया जाय तो भी, उत्तर वही दिया जाय; ऐसा दूसरा कोई रूप पाया नहीं जाता हैं; क्योंकि मूल-सूत्र में ही निषेध कर दिया गया है कि 'वन्द्रम' में स्थित हलन्त एवं संयुक्त 'द्' तथा 'र्' का लोप नहीं होता है इस प्रकार निषेध - आज्ञा की प्रवृत्ति कर देने से - (निषेध सामर्थ्य के उपस्थित होने से ) किसी भी प्रकार का कोई भी वर्णविकार संबंधी नियम 'वन्द्रम' के संबंध में लागू नहीं पड़ता है। ‘उल्काः— संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्का' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ल' का लोप और २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति होकर 'उक्का' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वल्कलम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वक्कल होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से प्रथम 'लू' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वक्कल' रूप सिद्ध हो जाता है। ' सद्दों' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६० में की गई है। 'अब्द:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अद्दा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अद्दों' रूप सिद्ध हो जाता है। 'लोद्धओं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११६ में की गई है। 'अक्को' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है। 'वग्गो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है। 'सह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७५ में की गई है। 'विक्लवः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विक्कवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'लू' का लोप; २-८९ से शेष ‘क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विक्कवो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पक्क' और 'पिक्क' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १- ४७ में की गई है। 'ध्वस्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'व' का लोप; २- ४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ्' को द्वित्व 'थ् थ' की प्राप्ति ; २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धत्थों' रूप सिद्ध हो जाता है। 'चक्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चक्क' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चक्क' रूप सिद्ध हो जाता है। 'ग्रहः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'रात्रि:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ७९ 'त्र' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'रत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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