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________________ उपदेशसंग्रह-५ ४५३ इतना गले उतर जाये तो बस है। असंगतावाली क्रिया क्या है? इसका उत्तर दिया नहीं जा सकता। यह सब नहीं देखना है। हमें तो आत्माकी बात प्रिय है। अन्य कुछ अच्छा नहीं लगता। यह सब कचरा है। सब मर जानेवाले हैं, फिर किसीका कुछ पता नहीं लगेगा। इसमें क्या देखना? कितने ही मनुष्य थे, वे सब कहाँ गये? यह सब देखना अच्छा नहीं लगता। मात्र आत्माकी बात सुननेसे आनंद आता है। ता.७-१०-३५ कैसे भाव करेंगे? क्या पुरुषार्थ करेंगे? सब चाहिये । सामग्री चाहिये । चूल्हेमें लकड़ी जलायी हों, पर भगोनेमें पानी ही न हो तो गर्म क्या होगा? इसी प्रकार भावरूपी पानी चाहिये, तब सामग्री काम आयेगी। यहाँकी बात अलग है। यहाँ तो आस्रवमें संवर होता है। बोध हो तो तदनुसार भाव होते हैं। उस भावके साथ पुरुषार्थ करेंगे तो परिणमन होगा। वैसे अकेला पुरुषार्थ व्यर्थ है। सत्पुरुषार्थ करें। निमित्त चाहिये । बोधके अनुसार भाव होते हैं। ___ मर जाये पर डिगे नहीं, ऐसी श्रद्धा होने पर भी उदय होता है। यह सब दिखाई देता है वह कचरेके समान लगता है, विषके समान लगता है । मुमुक्षु कहाँ चले गये? सब मर गये। ये हैं वे भी जायेंगे। किसीको कुछ कहना नहीं हैं। बात करनेका स्थान नहीं है। कहने जायेंगे तो कुछका कुछ पकड़ लेंगे। "तारुं तारी पास छे, त्यां बीजानुं शुं काम? दाणे दाणा उपरे, खानारानुं नाम." ता.९-१०-३५ पत्रांक ३७१ का वाचन :___करना क्या है? समझ। काममें क्या आयेगी? समझ । शरीर तो वृद्ध हो जायेगा। हमारा शरीर देखें-कान, आँख अब काम नहीं करते। पर इससे क्या? पूँजी हो तो काममें आती है। पूँजी एकत्रित कर लेनी चाहिये, समझ ही पूँजी है। शरीर तो चला जायगा, पर समझ नहीं जायेगी। भावको हटाकर जहाँ करना चाहिये वहाँ करें। समझके अनुसार भाव होंगे। इस पत्रमें सब स्पष्टीकरण है, कुछ बाकी नहीं रखा है। लघुता अर्थात् पर्यायदृष्टि न करना। जब तक पर्यायदृष्टि रहेगी, तब तक लघुता नहीं आयेगी। पर्यायदृष्टिके होते हुए आत्मभावना करना अभिमान मात्र है। यह जीव जिस-जिसका अभिमान करता है, वह पुद्गल है। उसमें आत्मा कहाँ है? फिर उसका अभिमान किस कामका? 'पर्यायदृष्टि न दीजिये। _स्वधाम जाते समय रामने कहा था कि सब विमानमें बैठ जायें, वैसा ही समय आया है। समझ प्राप्त कर लें। फिर भय किसका? भय होता हो तो समझें कि बुरी गति होनेवाली है। पुद्गल तो जानेवाला है । पूँजी इकट्ठी की हो तो काममें आती है। पूँजी क्या? समझ । सब जानेवाला है। भाव ज्ञानीके प्रति मोड़ें। जिसमें भाव जायेंगे वैसा होगा। भाव बदलना अपने हाथमें है। पुद्गलको रखनेसे भी नहीं रहेगा। सत्साधनको समझनेके पश्चात् बंधन कैसे हो सकता है ? पुद्गल ग्रहण न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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