SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० उपदेशामृत ज्ञानीपुरुषोंका बोध अद्भुत है! मरे हुएको जीवित करता है! सम्यक्त्व उसीसे होता है। खाना और सोना यह धंधा हो गया है। आलस्य और प्रमादने जीवका बुरा किया है। क्या खाना और सोना आत्माका धर्म है? सब मिथ्या है। शत्रु पर आत्मामें कितना विष होता है कि कब मार डालूँ, काट डालूँ? तो अनंतकालसे अनंत दुःखके कारण पाँच इन्द्रियाँ, मन और चार कषाय, ये दस शत्रु हैं, ऐसा समझा होता तो उनके प्रति कितना विष होता! विभावोंमें या मायामें जो राग, प्रेम, प्रीति है वह परमनिधान ऐसे आत्मामें राग नहीं होने देते। तो इन शत्रुओं पर अंतरमें कितना विष रहना चाहिये? आत्माको हितकारी एक सत्संग है, उसकी इच्छा ज्ञानीपुरुषोंने भी की है। क्योंकि उसीमें आत्मा पर भाव, रुचि, प्रीति, भक्ति हो सके ऐसा सुननेको मिलता है। सत्संग चिंतामणिके समान महादुर्लभ है, क्योंकि निमित्तकी प्राप्ति ही बहुत बड़ी बात है। 'फिकरका फाका भर्या, ताका नाम फकीर।' सब फिकरके फाके मारें, एक आत्मभावमें रहें। दुःख आना हो तो आये, रोग आना हो तो आये, धन चला जाता हो तो जाये; अंतमें यह देह भी चली जाना हो तो जाये! इससे मेरा कुछ नहीं जायेगा, मुझे कुछ हानि नहीं है। इनमेंसे कुछ भी मेरा नहीं है। मेरा है वही मेरा है । 'तेरा तेरे पास है, वहाँ दूजेका क्या काम?' अन्य सब तो कर्मकलंक है । जो आता है वह जानेके लिये आता है। उससे भार हलका होता है, ऋण चुकता है। ___ ज्ञानी महासुखमें रहते हैं, आनंदमें रहते हैं। फिकर मात्रके फाके मारें, एक सत्, शील और भक्तिमें लगे रहें। ‘आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।' आत्मभावनाका पुरुषार्थ करते रहें। ता. १७-११-३५ सत् और शील यही कर्तव्य है। शीलव्रत महाव्रत है। संसारके किनारे आ पहुँचनेवालेको ही यह प्राप्त होता है। देह गिर जाय तो भले ही गिरे, देह जाती है तो जाने दें, पर ब्रह्मचर्यका पालन करें। वृद्धावस्थामें भी यह व्रत आये तो महाभाग्य समझें। उसकी अवश्य देवकी गति होती है। मृत्यु तो सबको अवश्य आयेगी ही। यहाँ इतने लोग बैठे हैं उन सबको उस समय अनेक प्रकारकी वेदनाएँ प्राप्त होगी। सबको एक प्रकारकी नहीं आयेगी। तब इतना लक्ष्य रहे तो काम बन जाय वेदनी आती है उससे हजार गुनी आये, जो आती है वह जा रही है, बँधे हुए कर्म उदयमें आकर छूट रहे हैं। उन्हें देखनेवाला मैं आत्मा हूँ। मैंने तो ऐसा निश्चय कर लिया है कि मैं आत्मा कभी मरूँगा नहीं। बँधे हुए सब कर्म आकर जानेवाले हैं, पर देखनेवाला आत्मा है, आत्मा है, आत्मा है; वह नित्य है, नित्य है आदि छह पदका निश्चय किया है। "विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मंदबलसे ज्ञानीका शरीर कंपित हो, निर्बल हो, म्लान हो, मंद हो, रौद्र लगे, उसे भ्रमादिका उदय भी रहे; तथापि जिस प्रकारसे जीवमें बोध और वैराग्यकी वासना हुई होती है, उसी प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस प्रसंगमें प्रायः वेदन करता है।" बोध और वैराग्य आत्मा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy