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________________ ३७६ उपदेशामृत बहिरात्मपनसे प्रवृत्ति की है उसे छोड़ अंतरात्मा बननेका अवसर आया है। निश्चयनयसे जैसा अपना स्वरूप है, वैसा निश्चय नहीं हुआ है। अब उसका निश्चय कर लेना चाहिये। प्रत्येककी श्रद्धामें भेद है। सबको भावानुसार फल है। भाव उन्नत करें। प्रेम, स्नेह, भाव बढ़ा देवें। 'पावे नहि गुरुगम बिना' । गुरु दीपक है, उन्हींसे दीप प्रकाशित होगा। एक चोरको फाँसीकी सजा हुई। मंत्री विचक्षण था। उसने सूली पर चढ़े मृत्युके सन्मुख चोरसे पूछा, 'तुझे किसीकी शरण है ? संसारमें जिनको तुम अपना मानते थे उनमेंसे कोई अभी तुम्हें शरण देनेवाला है ?" चोरने कहा, "अभी तो मुझे किसीकी शरण नहीं है" मंत्री बोला, “मैं एक बात कहता हूँ उसे लक्षमें लोगे? लोगे तो तुम्हारा काम हो जायेगा।" चोरने कहा, “अवश्य लक्ष्यमें लूंगा। आप कृपा कर मुझे कहें।" दुःखके समयमें हितशिक्षा बहुत आतुरतासे ग्रहण हो सकती है। अतः मंत्रीने कहा, 'समभाव । चाहे जितना दुःख आये, मृत्यु आये पर मैं उसे समभावसे सहन करूँगा। वह दुःख नष्ट होगा, पर मेरा स्वरूप नष्ट नहीं हो सकता। अतः समभावमें रहना चाहिये।" चोरने समभावका शरण ग्रहण किया। वह मरकर देवगतिमें गया। मंत्रीने सूली पर चढ़े चोरसे बात की ऐसा जब राजाको ज्ञात हुआ तो उसने मंत्रीको पकड़कर कैद करने और उसका घर लूटनेके लिये सिपाही भेजे। सिपाही मंत्रीके घर लूटने आये। वहाँ कोई एक अनजान रक्षक खड़ा था। उसने सब सिपाहियोंको मार भगाया। फिर राजा स्वयं आया। उसने देखा कि यह रक्षक मनुष्य नहीं है किन्तु देव है। राजाने पूछा, 'तुम कौन हो?' रक्षकने कहा 'मैं चोर, मरकर देव हुआ हूँ। यह मंत्रीका प्रताप है, इसलिये इसका घर नहीं लूटने दूंगा।" राजा प्रसन्न हुआ। मंत्रीका सन्मान कर उसे सिरोपाव दिया। यों एक शब्द सुननेसे इतना हित हुआ, तब ज्ञानी पुरुषके शब्द वारंवार सुननेको मिले तो यह कितने महालाभका कारण होगा! अतः इसे सामान्य न जानें। अपूर्व अलौकिक भावसे ज्ञानीके वचनोंका सन्मान कर आत्महित साधनेके लिये जाग्रत हो जायें, चेत जायें। ता. १६-९-३५ मृत्यु अचानक आ पहुँचेगी। मृत्यु आने पर यह सब छोड़कर जाना पड़ेगा। देहादि सर्व परवस्तुओंका स्वामी बना बैठा है, उन्हें छोड़ना पड़ेगा। अतः अभीसे चेत जायें। मनुष्यभव और उसमें भी सत्पुरुषका समागम यह बहुत दुर्लभ योग मिला है। अतः चेत जायें। एक आत्माको पहचान लें तो फिकरके फाके मारे। जिसने आत्माको पहचान लिया वह तो बोल उठेगा, “अब हम अमर भये, न मरेंगे।" काल तो उसका किंकर हो गया! मृत्यु उसे महोत्सव हो जाता है। उसके घर तो बाजे बज गये। बाकी अन्यको मरण आये तब देख लें! मृत्यु तो आयेगी ही। अब इस दुःखको दूर करने किसे बुलाया जाय? कौनसे स्थानमें जाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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