SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३५ उपदेशसंग्रह-३ ता. ३-११-१९३३ मुमुक्षु-कषाय, संकल्प-विकल्प आदिसे अंतरंगमें होनेवाली जलन (उद्वेग)को शांत करनेका उपाय क्या? प्रभुश्री-मनमें संकल्प-विकल्प होते हैं जिससे जलन होती है। पर हम जो यह उपाय बता रहे हैं वह रामबाण है। यदि उसे श्रद्धापूर्वक मान्य किया जाय तो मान्य करनेवालेका अवश्य कल्याण होगा। पर जीवको विश्वास होना चाहिये, श्रद्धा होनी चाहिये । यहाँ पर हम जो कह रहे हैं उस पर जो कोई श्रद्धा रखकर मान्य करेगा उसका काम बन जायेगा। देवदेवीकी मान्यता अथवा यह ज्ञानी है, यह गुरु है ऐसी अपनी कल्पनाको छोड़कर एक सच्चे सद्गुरुपर दृढ़ रहें। ___मनमें संकल्प-विकल्प आते हैं उससे भले ही दुगने आये! परंतु वे संकल्प-विकल्प किसे आये? मुझे । ऐसा कहनेवाला 'मैं' तो संकल्प-विकल्पसे केवल अलग हूँ; मैं और वह एक नहीं। आकाश और पातालमें जितना अंतर है उतना ही अंतर उसमें और मुझमें है। मन, चित्त, विषय, कषाय-ये सब जड़ हैं। उसमें अहं और ममत्वकी जो मान्यता थी वही मिथ्यात्व या अज्ञान । मैं उन सबको जाननेवाला, सबसे भिन्न आत्मा हूँ। अब इतनी ही मान्यता कर जिसका उस पर दृढ़ विधास होगा, उसका काम बन जायेगा। इतने लोग यहाँ बैठे हैं, पर जो सुनकर तदनुसार मान्य कर, दृढ़ श्रद्धापूर्वक प्रवृत्ति करेंगे, उनका काम हो जायेगा। __ मैं तो उस मनसे, संकल्पसे, विकल्पसे, कषायसे, देहसे, स्त्रीसे, पुत्रसे, धनसे, धान्य आदि सबसे केवल भिन्न हूँ। रोग हुआ हो, रहा न जाता हो तो भी ऐसा समझे कि जिसका निकट संबंध हो वही स्वयंको दिखायी देता है। जैसे पड़ौसीका घर जलता हो तो अपने घरमेंसे ज्वाला दिखायी देती है, वैसे ही व्याधि, रोग, शोक, खेद, कषाय, विषय ये सब पुद्गलमें हो रहे हैं। देहका धर्म देह करती है, मनका धर्म मन करता है, वचनका धर्म वचन करता है, वह सब पुद्गल है। मैं आत्मा इन सबसे अलग हूँ। मात्र उनको देखनेवाला, जाननेवाला हूँ। उसके नाशसे मेरा नाश नहीं है। शरीरमें साता या असाता होनेसे मुझे साता या असाता नहीं है। चाहे जो भी हो, चाहे तो नरकतिर्यंच गति हो, चाहे मृत्यु आ जाये; पर यह श्रद्धा अचल रहो कि मैं उन सबसे भिन्न हूँ, मात्र देखने-जाननेवाला आत्मा हूँ। उस आत्माको एक ज्ञानीने जाना है, मैं वैसा हूँ। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुखमय मेरा जो स्वरूप है उसे यथातथ्य ज्ञानी सद्गुरु भगवानने जाना है। जिस आत्मस्वरूपको श्री सद्गुरुने जाना है, देखा है, अनुभव किया है वैसा ही पूर्वमें हुए सर्व ज्ञानियोंने देखा है, जाना है, अनुभव किया है। मेरा और सभी जीवोंका शुद्धस्वरूप उन ज्ञानियोंने जाना है, वैसा ही है। वही मुझे मान्य है। वही मेरा है। उसीमें मुझे प्रेम, प्रीति, स्नेह, भक्ति, भाव करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy