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________________ उपदेशसंग्रह-१ १९३ दुःखका कर्ता आत्मा है। अतः हे जीव! आत्माको सँभाल! स्नेही, मित्र, सगे-संबंधी आदिसे इस संसारमें प्रीति जोड़ी है, पर वे कोई सुख देनेवाले नहीं हैं। अंबालालभाई, सोभागभाई जैसे सब गये, पर साथमें कुछ गया? मुमुक्षु-धर्माराधन था वह साथमें गया। जैसी वासना और परिणाम! प्रभुश्री-आत्माके साथ कोई नहीं। कुछ है क्या? तब क्या है ? समझ । वह बुरी आये, अच्छी आये। उसके अनुसार गति होती है। अतः 'भूला वहींसे फिर गिन' 'समझा तभीसे सबेरा' । यह पकड़ने जैसी बात है। ये तो कोई बैठे हैं और बातें करते हैं ऐसा मत कर । बात ज्ञानीकी है। हमें तो जहाँसे वस्तु मिले वहाँसे ले लेनी चाहिये। ता. २३-११-३५ सबेरे [ता.१४-११-३५ (सं.१९९२) के 'जन्मभूमि मेंसे परमकृपालुदेवकी जयंति पर छपा लेख पढ़ा गया।] यह सब आत्माकी बात है। आत्माको तो सामान्य कर दिया है। वह क्या है? ज्ञानियोंने उसमें चमत्कार देखा है। यह माहात्म्य महान है। यह सब पढ़ा वह हमने इधर-उधरसे सुना। यह आश्चर्य किसे कहें ? क्या किसीमें कोई कुछ डाल सकता है? यह तो उसे स्वयं तैयार होना है, और वही तैयार होगा; गरजमंद होगा, जिज्ञासु होगा, तभी काम बनेगा। आप सब काम छोड़कर यहाँ आकर बैठते हैं तो कुछ लाभके लिये न? भाव है तो आया जाता है। भावका कारण कुछ चमत्कारी है! उसे ज्ञानियोंने देखा है, कहा जाय वैसा नहीं है। यह तो वह, उसका भाव और प्रेम । जैसे रंगकी चमक हो वैसे । कहा नहीं जा सकता। ऐसा है तो अब क्या करें? मनुष्यभव प्राप्तकर विश्वासका, प्रतीतिका, श्रद्धाका, आस्थाका रंग (प्रेम) कर्तव्य है; उसीमें बह जाओ। कोई कपड़ेको रंगमें डुबोये, दो, चार, पाँच, आठ बार डुबोये तब रंग पर रंग चढ़ता जाता है। एक बार डुबोनेसे पूरा रंग नहीं चढ़ता, कई बार डुबोनेसे रंग चढ़ता है। अतः बात सुनें, बार बार सुनें। कहनेका तात्पर्य यह कि जिसे बहुत श्रद्धा, प्रतीति आई है उसका काम बनेगा। सबको विश्वास, प्रतीति, श्रद्धाका काम है। देख देखकर देखा तो यह फल आया। सब सामग्री चाहिये। बहुत आश्चर्यजनक है! सही बात समझनेकी है, उसमें बहुत विघ्न होते हैं। बहुत कमी है, अतः समझिये । बोलने जैसा नहीं रहा, क्या कहें? कहा जाय वैसा नहीं है। 'जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।' अतः जागिये । यह मतिश्रुत है, पर इसकी न्यूनता है और उसके भेद अनेक हैं। जिनेश्वरकी तो बात ही अपूर्व है!-मनःपर्यव जिन! अवधिजिन! उसका पता नहीं है। वह हो तो जाने । अतः करना पड़ेगा। यह किसीका दोष देखना नहीं है, कमी दूर करना है, पर करेगा तो यह (आत्मा) स्वयं ही। अब यह सहज बात करता हूँ, समझनेके लिये संसारमें धन-दौलत, पद, खाना-पीना सब सुख था। उसे छोड़कर दीक्षा ली। उसमें भी श्वेतांबर, दिगंबर नहीं, हम तो एक ढुंढिया ऐसा मानते थे। और उसमें अहंकार और मान बढ़ा कि हम साधु बन गये, सब छोड़ दिया। ऐसा हुआ और वैसा ही मान बैठे। उसीमें अधरधक्क यों ही Jain Educatio23tional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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