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________________ १९० उपदेशामृत स्वभाव है । उसके बैठनेका, रहनेका स्थान है उसे भूलना मत । चेत जाना । 'भूले वहींसे फिर गिनें ' 'जागे तभीसे सबेरा' । अवसर आया है, अतः चेतिये । "निर्दोष सुख, निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी भले; ए दिव्य शक्तिमान जेथी, जंजीरेथी नीकळे. " ( श्री मोक्षमाला) ग्रहण करने योग्य समभाव है । अध्यात्मज्ञान संपादन करें । यह ध्यानमें रखना, हाँ ! जो प्रत्यक्ष है वही बोलता है । आत्मा है, सत्ता बोलती है। दिन बीत रहे हैं, पर आत्माके बिना व्यर्थ है । उसकी बात सुनें, श्रवण करें, सुख दुःख सहन करें; पूजा, अभिमान, बड़प्पन न करें; बहुत दुःख उठाये, पर कल्याण हुआ नहीं, मोक्ष हुआ नहीं। जप तप किये, उसका फल मिला । क्या कहा? एक आत्मा । चेतने जैसा है। आत्माकी, ज्ञानकी बात आपने सुनी, उससे अकथनीय कर्म क्षय होते हैं। कैसा अवसर आया है ? दाँव आया है, समय जा रहा है। मनुष्यभवमें जो धर्मकी बात है, उसमें आत्माको याद किया तो कोटि कर्म क्षय होते हैं। बहुत चमत्कार है! अपूर्व है ! जिसके गुणगान किये हैं, उसका पता नहीं है । अन्य सब मिथ्यात्व है । एक सच्चा काम किसका है ? उपयोगका । जाने-अनजाने कोई वचन सुना, उससे कितना काम हो जाता है! पापके दल संक्रमण होकर पुण्यरूप बंध होता है, ऐसा यह स्थान है। एक अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया । अनाथी मुनि, श्रेणिक राजा आदिने एक अंतर्मुहूर्तमें समकित प्राप्त किया । कैसा हुआ ? दीपक प्रगट हुआ ! क्या होगा? अल्पसंसारी होकर मोक्ष होगा । अज्ञान गया । यह जीव जन्ममरण करता आया है, मोक्ष नहीं हुआ है । अतः कितना सावधान रहने जैसा है ? अवसर आया है । अध्यात्मज्ञान प्राप्त करें । यह उपदेश है, कहना है, दूसरी बात नहीं है । जीवको अध्यात्म ज्ञान किससे होता है? एक ही चाबी है । जीवके भानमें या लक्ष्यमें नहीं है । यह बोल रहा है, कह रहा है, इसका तो मुझे पता है, मैंने सुना है, मैं जानता हूँ, ऐसा कर करके सब व्यर्थ गँवा रहा है । वृत्ति क्षण क्षण बदलती है, अतः छोड़ सब झंझट, पड़ा रहने दे सब । आत्माको देख, तो और सब हो गया । दिखाई नहीं दिया, भाव तथा प्रतीति नहीं है । ये सब विघ्न करनेवाले हैं । वस्त्र हटाये तो दिखाई देता है, अतः देखना है। एक बड़े से बड़ी बात शुद्ध भावकी है, अतः चेतिये । अवसर आया है । तू असंग है । बहुत किया, वह सब अपना न समझ । कुटुंब - परिवार सब पर है, अपना न मान । यह सुनाई देता है क्या ? ध्यानमें ले या न ले, भले ही मान या मत मान ! मुझे क्या ? जो है सो है - आत्मा ! वह है तो अवश्य। उस पर दृष्टि नहीं है, भाव नहीं है । संक्षेपमें कहूँ तो 'बात माननेकी है,' मानेगा ? हाँ ! तो जा, तेरा काम हो गया। अब और मत देख । *खाजेके चूरेसे भी पेट भरता है । अतः वह जहाँ 1 1 * दुष्कालके समयमें कुछ मजदूर टोकरियाँ और कुदाली- फावडा लेकर मजदूरी करने जा रहे थे। उन्हें देखकर एक हलवाईकी लड़कीने अपने पितासे पूछा कि ये सब कहाँ जा रहे हैं ? हलवाईने कहा- मजदूरी करने जा रहे हैं। उसने पूछा कि मजदूरी करने क्यों जाते हैं ? हलवाई बोला - दुष्कालमें खानेको नहीं मिलता, अतः मेहनत कर अपना पेट भरते हैं । तब लड़कीने कहा- क्या ये खाजाका चूरा नहीं खा सकते ? हलवाई बोला- वह तो तुझे मिलता है, इनको कहाँसे मिलेगा ? इसी प्रकार आजकल सत्संगका दुष्काल है। वह ढूँढने पर भी मिलना कठिन है । किन्तु जिसे पूर्व पुण्य द्वारा सत्संग मिला है, उसे ऐसा लगता है कि 'सभी ऐसा सत्संग क्यों नहीं करते ?' किन्तु पुण्यके बिना सत्संग करना भी नहीं सूझता, तथा मिलना भी दुर्लभ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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