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________________ १८२ उपदेशामृत I 1 कहा है कि यह सब छोड़े बिना छुटकारा नहीं है । अतः इस विषयमें सत्संगमें बोध सुनकर जानकारी प्राप्त करें । इसीको याद करें और इसीका ध्यान रखें । अतः वास्तवमें लेना क्या है ? आत्मा, उसकी खबर लें । चेत जायें । एक आत्मा, शेष सब धोखा है । कोई किसीका नहीं है । अकेला आया और अकेला जायेगा । 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।' सुख-दुःखका कर्त्ता स्वयं अकेला है। अतः उसकी खबर लेनेके लिये नम्र बनें, शूरवीर बन जायें । अन्य संसारकी मायाके रंग देखने दौड़ता है; पर जो आत्मा है उसे तो एक ओर छोड़ दिया है । अतः किसी एक सत्पुरुषको ढूँढें, उसे पहचानें । कहीं प्रीति करने जैसा नहीं है । सबसे क्षमायाचना करते हैं । कितना पुकार -पुकार कर कहा है ! पर सब पुस्तकोंमें है; कण्ठस्थ भी कर लिया, पर सब जहाँका तहाँ। संसारमें कहा जाता है कि " पन्ना फिरे और सोना झरे 'वह स्वार्थ है । मायामें प्रीति है, पर एक जो भगवानने कहा है उसमें प्रीति नहीं है। अब एक थप्पड़ मारकर कहता हूँ"शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजुं कहिये केटलूं ? कर विचार तो पाम. " 'कर विचार तो पाम' अतः विचार तो बड़ी वस्तु है । पर वे कौनसे विचार ? अन्य बहुतसे विचार हैं, वे नहीं । एक आत्मविचार "" "आत्मभ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण; गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान. ' औषधि दो हैं-विचार और ध्यान । यह स्पष्ट कह दिया । अब क्या कहना ? अन्यत्र कहीं भी, किसी भी स्थान पर, किसीके पास यह बात सुनेंगे ? कहीं नहीं सुन पायेंगे । जाइये तो सही, सभी माया । यह स्थान कैसा है ? कानमें पड़े तो पुण्यके ढेर बँधते हैं । अन्य कहीं भी ढूँढ लेने तो जा, नहीं मिलेगा । माया मिलेगी, पर यह नहीं मिलेगा। बुढ़ापा आया है । व्याधि सब आ रही हैं, उसे मना कैसे किया जाय ? आओ, इससे भी अधिक आओ । 'छूट रहे हैं, जा रहे हैं' – ऐसा नहीं किया। 'धींग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट, विमल जिन, दीठां लोयण आज.' " एक स्वामी किया हो तो व्याधि, दुःख, पीड़ा हो तो भी उसका क्या बिगाड़ सकते हैं? समझ बदली है। आओ, आओ और आओ-ऋण उतर रहा है । अन्यको यह सब 'मुझे हो रहा है', 'मुझे दुःख है', 'मुझे व्याधि है', 'मुझे पीड़ा हो रही है' - 'मेरा, मेरा' करता है ! किंतु जिसकी समझ बदली है, उसे कोई तुकार करे, तुच्छ शब्द कहे, कटु वचन बोले, गालियाँ दे, तो ऐसा समझता है कि मेरे कर्म क्षय हो रहे हैं । अन्यको 'मुझे गाली दी', 'मुझे कहा', 'मुझे, मुझे ' होता है, तब बंध होता है । अतः मेहमान हो, दो घड़ी दिन बचा है, अतः चेत जाओ और सबसे क्षमायाचना कर लो । "अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुंय; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुं य ?" यह गाथा रामका बाण है, ऐसी-वैसी नहीं है । अधमाधम अर्थात् स्वयं दोषयुक्त हुआ और अन्यको सिरमौर माना । अन्य सब दुःख-सुख, वृद्ध-युवान, छोटा-बड़ा, स्त्री-पुरुष - उसे आत्मा न १. भावार्थ- पन्ना (बहीखाताका पृष्ठ) पलटने पर सोना मिलता है यानि किसीके पैसे लेने निकलते हो तो बहीका पन्ना पलटनेसे ही पता चलता है और फिर वसूली करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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