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________________ पत्रावलि-२ १२९ उस ज्ञानीपुरुष पर श्रद्धा करनी चाहिये कि वे मुझे मिथ्या नहीं बतायेंगे, वे कहते हैं वही मुझे मानना है। मुझे अभी आत्माका भान नहीं है, पर ज्ञानीपुरुषने जैसा आत्मा जाना है, देखा है, अनुभव किया है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, वही मुझे मानना है। व्याधि, पीड़ा, सुख-दुःख, संकल्प-विकल्प जो होते हैं उन्हें मुझे नहीं मानना है। ज्ञानीपुरुषने जिसे जाना है, वह मुझे मान्य है। चिंता, फिकर, सुख, दुःख आते हैं उससे दुगुने आये, किन्तु मुझे उन्हें मानना नहीं है और जो स्मरण करनेको कहा है उसीकी एक श्रद्धा रखकर मुझे हृदयमें उसे सुरक्षित रखना है। यह मान्यता करना अपने हाथकी बात है। भले ही नरक या तिर्यंच गति होनी हो तो हुआ करे, पर मुझे तो इस भवमें बस यही निश्चय रखना है और उसका क्या फल प्राप्त होता है यह देखना है। ऐसी दृढ़तासे यदि स्मरणमें चित्त रखे तो संकल्प-विकल्प चाहे जितने भले ही आयें, वे सब जानेके लिये ही आते हैं। और नरक, तिर्यंच गति तो सामने ही नहीं आयेगी। हम कहें कि अभी ज्वर आ जाये, पेटका दर्द आ जाये, पर वह आ ही नहीं सकता। जो बंध किया है वही उदयमें आता है, वह भी रहनेको कहो तो भी नहीं रह सकता। उसका समय पूरा हो जाने पर दूर हो जानेवाला है, तो फिर चिंता किस बातकी? परवस्तुमें सिर खपानेकी माथापच्चीको छोड़कर जो हो रहा है उसे देखते रहें। मेरा-तेरा, सगा-संबंधी, शत्रु-मित्र, स्त्री-पुत्र कुछ देखने योग्य नहीं है। एक आत्मा देखें। उपयोग ही आत्मा है। चाहे जहाँ भाव. परिणाम फिरते हों. उन्हें उपयोगमें लायें। चलते. फिरते. बैठते. उठते आत्मा देखें। बेटा हो वह अन्य देखता है। ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिये, फिर उसे कोई चिंता नहीं। जो जो आता है वह सब छूटनेके लिये ही आता है। व्याधि, पीड़ा चाहे जो आवे, पर वह तो दुःखी होनेके बजाय ऐसा मानता है कि अच्छा हुआ कि ये दुःख, संकल्प-विकल्प आये, जिससे मुझे स्मरणमें जानेका निमित्त मिला, अन्यथा प्रमाद होता। इतनी उम्र होने तक माता, पिता, स्त्री, पुत्र, धन, मकान, आहार आदि अनेक प्रकारके प्रसंग, संयोग आये। आये वे सब देखें; पर कोई स्थिर नहीं रहे। वैसे ही इस भवमें जो-जो पुद्गलकी रचना निर्मित होगी वह सब दिखाई देगी सुखरूप या दुःखरूप, परंतु वह कोई भी स्थायी रहनेवाली नहीं है, सब चली जानेवाली है। बड़े-बड़े राम-रावण, कौरव-पांडव, यादव इनमेंसे कोई अभी नहीं हैं, सब चले गये; तो इस भवमें जो सुख-दुःख आता है वह कहाँ रहनेवाला है? दो दिनके मेहमान जैसा है। उसमें क्या चित्त लगाना? अमूल्य वस्तु तो आत्मा है, उसे ज्ञानीने जाना है, यह निःशंक बात है और वैसा ही मेरा आत्मा है। अभी उसका भान नहीं है, फिर भी अभी उसे मान्य किया जा सकता है। मृत्युकी वेदनाके समय भी यह दृढ़ता रहे, ऐसा अभ्यास हो जाये तो समाधिमरण प्राप्त हो जाय, जन्ममरणके दुःख दूर हो जाय और काम बन जाय । करोड़ों रुपये कमानेसे भी अधिक कीमती यह काम है जो करने योग्य है। स्मृतिमें रखकर उद्यमशील बन जाना चाहिये । 'फिकरका फाँका भरा, उसका नाम फकीर' इस प्रकार निश्चिंत हुआ जा सकता है। सत्पुरुषार्थ कर्तव्य है जी। १. मूल गुजराती पाठ – “बेट्टो होय ते बीजुं जुए." Jain Educat e rnational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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