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________________ पत्रावलि-१ १०९ प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पड्यो न सद्गुरुपाय; दीठा नहि निजदोष तो, तरिये कोण उपाय ?" जूआ खेलनेवाला नरकमें जाता है, यह बात बहुत ध्यानमें लेने योग्य है। ऐसा मनुष्यभव पुनः नहीं मिलेगा। सहज ही काम चल रहा हो और स्वयं जूआ आदि दुराचरणमें प्रवृत्ति करता हो उसे धिक्कार, धिक्कार, धिक्कार है! १६९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ___ फाल्गुन सुदी १०, १९९१ ता.१४-३-३५ आप जैसे भी संभव हो कोई मौका देखकर सत्संग करने यहाँ आइयेगा। एक आत्मा है, उसकी सत्संगमें उपदेशसे जान-पहचान होने पर सर्व दुःखोंका नाश होकर शांति प्राप्त होती है। अतः अवकाश निकालकर आयेंगे तो बोध मिलेगा। इसके समान एक भी नहीं है। बोधसे कल्याण होता है और यथातथ्य समझमें आता है। फिर कोई चिंता नहीं रहती। “फिकरका फाँका भरा, उसका नाम फकीर" इतनी बात ध्यानमें रख कर, आपके चित्तमें किसी प्रकारका खेद दिखाई दें तो यहाँ आ जायें। एक दो दिन यहाँ रहेंगे तो सर्वथा खेद-चिंताका नाश होकर, सभी बात यथातथ्य समझमें आयेगी। ज्ञानीको भी कर्म बँधे हुए होते हैं, फिर भी उन्हें खेद नहीं रहता, किन्तु उल्टा भी सुल्टा बन जाता है। यह अभी समझमें नहीं आया है अतः समझनेकी आवश्यकता है। यह बात मनमें रखेंगे तो बहुत अच्छा होगा। अधिक क्या लिखें? अवकाश निकालकर समागम करनेका लक्ष्य रखियेगा। १७० श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ता.२२-३-३५ भगवानका वचन है कि 'सद्धा परम दुल्लहा'। आपको परमकृपालुदेव पर श्रद्धा है वह अब बदलनेवाली नहीं है। अन्य सब तो प्रारब्धानुसार होता रहता है। जीवको योग्यताकी कमी हो तो उसे पूरी करने पर ही छुटकारा है। परमकृपालुदेवके प्रति प्रेम, उल्लास, भक्ति कर्तव्य है। शारीरिक स्थिति तो जैसी बदलती रहे वैसी देखते रहना उचित है। समता, धैर्य रखकर सब सहन करना योग्य है, समता-शांतिसे रहना योग्य है जी। १७१ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास श्रावण सुदी १५, सं.१९९१ परमकृपालु महापुरुषोंने कहा है कि जीवने जो किया है उसे भोगे बिना किसीको छुटकारा नहीं मिल सकता। इस जीवको भी नहीं बाँधा हुआ कुछ नहीं आयेगा। अतः समतासे, धैर्यसे, समभावसे सहन करना चाहिये, ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने कहा है। बँधे हुए कर्म छूटते हैं। उसमें हर्ष-शोक करना योग्य नहीं है। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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