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________________ १०० उपदेशामृत "जो जो पुद्गल फरसना, निश्चे फरसे सोय; ममता-समता भावसें, कर्म बंध-क्षय होय." "बीती ताहि विसार दे, आगेकी सुध ले; जो बनी आवे सहजमें, ताहिमें चित्त दे." भाई मंगलभाईकी धर्मपत्नी पवित्र बहनका छोटी उम्रमें देहावसान हुआ सुनकर अल्प परिचयवालेको भी खेद हो ऐसी यह घटना है, तो निकट संबंधियोंको विशेष खेद होना संभव ही है। पर वह किसीके हाथमें नहीं है। कहा है कि ___ "कोउ न शरण मरण दिन, दुःख चहुँ गति भर्यो; सुख दुःख एक ही भोगत, जिय विधिवश पर्यो." परंतु उस खेदको त्यागकर यों सोचना चाहिये कि मनुष्यभवका आयुष्य अधिक होता तो वे धर्माराधन विशेष कर सकतीं थीं। इस मनुष्यभवका कुछ मूल्य नहीं हो सकता, यह अमूल्य है। मनुष्यभवमें धर्म होता है। भगवानने मनुष्यभवको दुर्लभ कहा है। उसमें उत्तम कुलमें जन्म पाकर पुण्यवानके घरका संयोग मिला, सत्संग हो सके ऐसी निकटता होने पर भी ऐसा संबंध छूटनेसे खेद होता है। अनादिकालसे इस जीवने समकित प्राप्त नहीं किया है, तो सत्संगके योगसे 'सत्'की बात सुनकर जीवको श्रद्धा होती है इसका लाभ प्रायः मनुष्य भवके बिना नहीं मिलता, यही खेद कर्तव्य है। वैसे तो संसार असार है। इस देहकी पर्याय तो एक न एक दिन छूटेगी ही, पर उससे धर्म हो सकता है यही सार है। आप प्रज्ञावान, समझदार, सयाने हैं, सत्पुरुषके आश्रित हैं, अतः सबको सांत्वना, धैर्य दिला सकते हैं। अतः अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है । तथा मंगलभाईको कहें कि कुछ खेद कर्तव्य नहीं है। "किसी भी कारणसे इस संसारमें क्लेशित होना योग्य नहीं।" जीव मनुष्यभव प्राप्त कर केवल सम्यक् श्रद्धाको प्राप्त कर लें तो जप तप आदिसे भी अधिक हुआ-सब कुछ हुआ ऐसा समझें। सार धर्म, सम्यक् श्रद्धा दुर्लभ है। अतः आप समझदार हैं, विचक्षण हैं। मनुष्यभव प्राप्त कर सावधान होने जैसा है। कालका भरोसा नहीं है। काल सिर पर मँडरा रहा है। प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है। जीवको बार बार यह योग मिलना दुर्लभ है-मेहमान है, पाहुना है ऐसा जानकर दिन-प्रतिदिन धर्माराधन कर्तव्य है। प्रतिदिन पाँच-दस मिनिट या पाव घंटा नियमित स्मरण-भक्ति अवश्य करनी चाहिये । रुक्मिणी माँको भी कहें कि संसारमें मनुष्यभव प्राप्तकर चेतने जैसा है। मरण तो सर्व प्राणीमात्रको आयेगा ही, अतः खेद न करें, घबराये नहीं तथा जैसे भी हो भक्ति-स्मरणका लक्ष्य रखें। एक धर्म ही सार है। * * १५५ सं.१९९० सहजात्मस्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वामीको नमस्कार हो! सर्वज्ञदेव, नमस्कार हो! परमगुरु, नमस्कार हो! । __ यह जीव प्रतिसमय मर रहा है, शुभ-अशुभ पुद्गलोंका स्पर्श किया है। ज्ञानी समभावमें हैं। देह छूट जानेका भय कर्तव्य नहीं, हर्ष-विषाद करना उचित नहीं। अशुभ शुभ आदि मिथ्या बुरे जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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