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________________ ४७ पत्रावलि-१ जीव जागृत न हो तो वृत्ति ठग लेती है जी। अज्ञानरूपी अंधकारमें रहता जीव घोर पापका बंधन कर दुर्गतिमें-नरक, पशु, पक्षीमें जन्म लेकर महादुःखमय जन्म-मरण करते हुए भटकता है। उसे पुनः मनुष्यभव मिलना दुर्लभ हो जाता है। इस संसारको स्वप्नवत् जानकर प्रमादको छोड़कर, अपने स्वच्छंदको रोककर अच्छे निमित्तोंमें जुड़े तो भविष्यमें उसका फल अच्छा मिलेगा। अतः क्षणभर भी जीवको निकम्मा नहीं छोड़ना है। यदि क्षणभर भी निकम्मा रखेंगे तो जीव अपना सत्यानाश कर डालेगा। ६८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास भाद्रपद वदी ८, गुरु, १९७८ आपका भक्तिभाव अच्छा है। किन्तु उस भावसे संकल्प-विकल्प कर कुछ भी निर्णय करना योग्य नहीं। अर्थात् कोई संकल्प विकल्प नहीं करना चाहिये, ये मिथ्या हैं; भक्तिभावमें रहना चाहिये। अपने प्रारब्ध-कर्मको भोगते हुए भी आकुल नहीं होना चाहिये या घबराना नहीं चाहिये; वीतरागका मार्ग ऐसा नहीं है। जो हो उसे उदासीन भावसे अर्थात् समभावसे भोगना योग्य है। अपने पतिको परमात्मारूप मानकर व्यवहार करें। कषायका निमित्त हमसे न हो इसे ध्यानमें रखना चाहिये। धैर्यसे सहनकर काल व्यतीत करना चाहिये, जल्दबाजीका काम नहीं है। अभी बाह्यपरिणतिपूर्वक व्यवहार करते हुए बहिरात्मभावसे जो संकल्प-विकल्प मनमें उठते हैं, आते हैं, वे सर्व मिथ्या हैं जी। अतः वे कर्तव्य नहीं हैं जी। वे आत्महितको आवरणकर्ता हैं जी। ६९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास भाद्रपद वदी १४, बुध, १९७८ १"नहि बनवानुं नहि बने, बनवू व्यर्थ न थाय; कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय." सन्मुखदृष्टिवान भाविक जीवात्माको जिस-जिस क्षेत्रकी स्पर्शनासे काल व्यतीत होता है, वह उदयाधीन सत्संगके वियोगमें उदासीनता अर्थात् समभाव रखकर सच्चे भावसे अपारिणामिक ममतासे वह काल व्यतीत होता है, वह आत्माके कल्याणके लिये है। काल सिर पर खड़ा है। प्राण लिये या लेगा ऐसा हो रहा है। यह जीव अब भी किस कालकी प्रतीक्षामें है, यह विचारणीय है। प्रमाद नहीं करना चाहिये। जैसे भी हो पुरुषार्थ करना योग्य है। "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे," जीव लहे केवलज्ञान रे. "व्यवहार प्रतिबंधसे विक्षिप्त न होकर उत्साहमान वीर्यसे स्वरूपनिष्ठ वृत्ति करना योग्य है।" "आत्महित अति दुर्लभ है ऐसा जानकर, विचारवान पुरुष अप्रमत्ततासे उसकी उपासना करते हैं।" इस जीवकी उत्तापनाका मूल हेतु क्या है? तथा उसकी निवृत्ति कैसे हो? और क्यों नहीं हो १. नहीं होनेवाला होता नहीं और होनहार टलता नहीं। तो फिर ऐसी औषध क्यों न पी जाये कि जिससे चिंता न हो अर्थात् चिंता नहीं करनी चाहिये, उसे घोलकर पी जाना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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